SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति सारा वातावरण प्रकंपित हो रहा है। मैं समाचारपत्र में पढ़ रहा हूं कि आर्कटिक महासागर जम गया है। मैं बैठा-बैठा देख रहा हूं कि उस बर्फीले सागर में ऊर्मियां नहीं हैं। क्या मैं स्वीकार करूं कि यह सागर के स्वभाव का परिवर्तन नहीं है? क्या इस स्वीकार से मैं सत्य को अनावृत कर सकूँगा? सागर का सघन होना और ऊर्मियों का न होना वैसा ही सत् है जैसा कि सूर्य के अस्तित्व में अंधकार का न होना। क्या मैं इस तथ्य को स्वीकार करूं कि देह के सागर का जल जम गया है, उसमें काम, क्रोध और भय भी ऊर्मियां नहीं हैं? मन का सघन होना और ऊर्मियों का न होना एक ही तथ्य की स्वीकृति की दो भाषा-पद्धतियां हैं। मन का जल केन्द्रीकरण की प्रक्रिया से सघन हो जाता है और ऊर्मियां शान्त हो जाती हैं। मैं अभी केन्द्रीकरण की प्रक्रिया नहीं बता रहा हूं, किन्तु यह बता रहा हूं कि स्वाभाविक को बदल देना पुरुष का पौरुष है। इसीलिए यह सनातन-स्वर वायुमण्डल में प्रतिध्वनित होता रहा है-'पुरुष! तू पराक्रम कर।' पुरुष इसीलिए महान् है कि उसमें पौरुष है। पौरुष इसीलिए महान् है कि उसे स्वाभाविक मैं परिवर्तन लाने की क्षमता प्राप्त है। प्रबुद्ध और पराक्रमी पुरुष जो 'है' उसी से सन्तुष्ट नहीं होता, किन्तु जो ‘होना है' उसी ओर गतिशील रहता है। यह गतिशीलता ही स्वाभाविक को अस्वाभाविक और अस्वाभाविक को स्वाभाविक बना देती है। स्वाभाविकता स्थिति-सापेक्ष अनुभूति है। उसका निरपेक्ष रूप हमारी प्रत्यक्षानुभूति में नहीं है। मैंने देखा, एक आदमी खुजला रहा है और लहूलुहान हो रहा है। मैंने उससे पूछा- 'घाव पड़ रहे हैं, फिर क्यों खुजलाते हो? उसने सहज मद्रा में उत्तर दिया-'खजलाने में बहुत आनन्द है।' मैं उसके उत्तर से सहमत नहीं हो सका। मैं यह समझने में असमर्थ रहा कि खजलाने में भी कोई आनन्द है। मैं फिर थोड़े गहरे में गया। मेरी बुद्धि ने स्वीकृति दे दी, वह ठीक कह रहा था। खुजलाने में जो आनन्दानुभूति है, उसे वही जान सकता है, जो खुजली के कीटाणुओं से आक्रान्त है। मैं उन कीटाणुओं से मुक्त हूं, इसलिए उसके आनन्द की भूमिका तक कैसे पहुंच सकता हूं? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy