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स्वाभाविकता के सापेक्ष मूल्य ७ क्या अब्रह्म और ब्रह्म की स्थिति इससे भिन्न है? अब्रह्मचर्य के कीटाणुओं से आक्रान्त व्यक्ति को भोग में आनन्दानुभूति होती है, किन्तु उस व्यक्ति को नहीं होती, जो उन कीटाणुओं से अनाक्रान्त है। ___ मैं आपसे पूछता हूं, क्या भूख लगने पर खाना सुख है ? मैं नहीं समझ सका, यह कोई सुख है। भूख क्या है? जो जठराग्नि की पीड़ा है, वही भूख है। यह रोज की बीमारी है, इसलिए हम इसे बीमारी नहीं मानते। जो पीड़ा कभी-कभी होती है, उसे हम बीमारी मान लेते हैं। मैं देख रहा हूं एक आदमी ज्वर से पीड़ित है। वह दवा ले रहा है। क्या दवा लेना भी कोई सुख है? यह सुख नहीं है, किन्तु रोग का प्रतिकार है। मैं इसी भाषा में दोहराना चाहता हूं कि रोटी खाना भी सुख नहीं है, किन्त रोग का प्रतिकार है। यह सही है, सुख के प्रति मनुष्य का आकर्षण होता है। यह भी उतना ही सही है-बहुत बार मनुष्य असुख को भी सुख मान बैठता है।
जैसे-जैसे चैतन्य की अग्रिम भूमिकाएं विकसित होती हैं, वैसे-वैसे वह विपर्यय निरस्त होता चला जाता है। स्वाभाविक और सुख की मान्यताएं भी बदल जाती हैं। आकर्षण का केन्द्र भी कोई नया बन जाता है। वही शाश्वत स्वर फिर कानों से टकरा रहा है-'पुरुष! तू पराक्रम कर।
पराक्रम परिवर्तन की भूमिका में प्रस्फुटित होता है। परिवर्तन पदार्थ के धरातल पर ही नहीं होता, चैतन्य-जगत् में भी होता है। जो है, वही स्वाभाविक है, इस स्वीकृति का अर्थ होता है, विकास का अवरोध। विकास के क्रम में स्वाभाविकता के सापेक्ष मूल्य बदलते चले जाते हैं। मनुष्य ने इस क्रम को स्वीकृति दी, इसीलिए वह तात्कालिक आक्रमण से दीर्घकालीन समझौता-वार्तालाप तक पहुंच गया। वह चैतन्य जगत् में भी विकास की उस भूमिका तक पहुंच सकता है, जहां उसकी स्वाभाविकता को कोई दूसरी स्वाभाविकता चुनौती न दे सके। यही है उसका अस्तित्व-बोध, जो प्रत्यक्षानुभूति से सतत प्रवाहित होता रहा है।
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