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८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
४. सत्य क्या है?
तुम्हें इसका अचरज है, कि मैं आत्मा को नहीं मानता। मुझे इसका अचरज है कि तुम आत्मा को नहीं जानते, फिर भी मानते हो कि वह है। क्या तुमने कभी देखा कि आत्मा है? क्या देखे बिना कोई जान सकता है कि वह है? जानता वही है, जो देखता है। जो जानता है, वह मानता नहीं और जो मानता है, वह जानता नहीं।
तुमने मान रखा है कि आत्मा है। इससे तुम्हें प्रकाश कब मिला? तुम्हें प्रकाश तब मिलता, जब तुम जान पाते कि आत्मा है।
मैंने मान रखा है कि आत्मा नहीं है। इससे मुझे अन्धकार कब मिला? मुझे अन्धकार तब मिलता, जब मैं जान पाता कि आत्मा नहीं है। तुम भी मान रहे हो और मैं भी मान रहा हूं। मानना आखिर मानना ही तो है। लो, मैं तुम्हें एक कहानी सुनाऊं
एक गृह-स्वामिनी ने अपने नौकर से कहा- 'जाओ, बाजार से घी ले आओ।' वह बोला-'मैं इस समय नहीं जा सकता। मुझे अंधेरे में डर लगता है।' गह-स्वामिनी बोली-'तुम यह मान लो कि डर कुछ भी नहीं है।' बेचारा चला। सीढ़ियों से ही फिर लौट आया। गृह-स्वामिनी ने फिर वही उपाय बताया। वह फिर चला और फिर बीच में से ही लौट आया। तीसरी बार फिर उपदेश मिला। वह सीढ़ियों से नीचे उतरा
और दो ही क्षणों में भरा बर्तन ला गृह-स्वामिनी के सामने रख दिया। उसने पूछा-'क्या घी ले आए? नौकर बोला-'हां, ले आया।' उसने सूंघकर कहा- 'अरे! घी कहां? यह तो गधे का मूत्र है।' नौकर बोला-'तुम मान लो यह घी ही है।' वह बोली-जो घी नहीं, उसे मैं घी कैसे मान लूं? नौकर बोला-'मुझे डर लगता है, तब मैं कैसे मान लूं कि डर कुछ भी नहीं है?
यह तर्क के प्रति तर्क है। मानने की दुनिया में और है ही क्या? तर्क के प्रति तर्क और फिर तर्क के प्रति तर्क और तब तक तर्क, जब तक मानना समाप्त न हो जाए। मैं मानता हूं कि धर्म जीवन की स्वाभाविक मांग नहीं है। तुम मानते हो कि वह जीवन की स्वाभाविक मांग है। ये दोनों मान्यताएं हैं। सत्य क्या है? यह तुम भी नहीं जानते
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