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सत्य क्या है? ६
और मैं भी नहीं जानता। ___मैं जब-जब जानने के साधनों के बारे में सोचता हूं तो मुझे लगता है कि हमारे दार्शनिक बहुत भ्रान्ति में हैं। उनकी सत्य की कल्पना मृगमरीचिका से अधिक अर्थवान नहीं है। उन्होंने कहा है-सत्य अतीन्द्रिय है। मैं आपसे कहूं हमारे पास जानने के दो साधन हैं
इन्द्रिय और मन।
मैं नहीं समझ सका, फिर उन्होंने यह किस ज्ञान से जाना कि सत्य इन्द्रिय और मन से परे है। हमारे कुछ दार्शनिक इन्द्रिय और मन से ज्ञात होने वाले पदार्थों को मिथ्या मानते हैं और सत्य उसे मानते हैं, जो इनके द्वारा नहीं जाना जाता। उनका मानना है कि इन्द्रिय और मन का ज्ञान संशय और विपर्यय से युक्त होता है, इसलिए वह अभ्रान्त नहीं होता। आंख का काम देखना है पर वातावरण धुंधला हो या दूरी हो तो पता नहीं लगता, सामने वाला कौन है, खंभा है या आदमी? सीपी पर सूरज की किरणें पड़ती हैं, तब जान पड़ता है कि वह चांदी है। कफ बढ़ जाता है, तब मीठी चीज भी कड़वी लगती है और सांप-काटे को नीम भी मीठा लगता है। हर इन्द्रिय का ज्ञान बाहरी वातावरण और परिस्थिति से इतना प्रभावित होता है कि उससे वास्तविक सत्य जाना ही नहीं जा सकता। __ इन्द्रिय की भांति मन भी संशय और विपर्यय के जाल में फंसा रहता है। क्या प्रशंसा से पेट भरता है? नहीं भरता, फिर भी आदमी उसके लिए खाली पेट रह जाता है। ___ गाली के प्रति गाली देने में सुख की अनुभूति होती है। दूसरे को अपने से छोटा मानने में सुख मिलता है।
समझे आप उनका तर्क? इसी तर्क के सहारे वे कहते हैं कि इन्द्रिय और मन वास्तविक सत्य को नहीं जान सकते। इसी दृष्टि के आधार पर वे कहते हैं कि इन्द्रिय और मन का सुख वास्तविक नहीं है। पर मैं आपसे पूछू-क्या हमारे पास वास्तविकता की कोई कसौटी है?
इन्द्रिय और मन के परे कोई वास्तविकता है तो होगी। हम उसे कैसे जानें? हमारे पास उनके अतिरिक्त जानने का कोई साधन ही नहीं। जो साधन हैं, उन्हें भ्रान्त मानकर उनके निर्णय को मिथ्या मानें और जो
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