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२ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति
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२. मानसिक स्तर पर उभरते प्रश्न
'रात की वेला थी । मैं बैठा था और मेरे सामने बिजली जल रही थी । उसका प्रवाह गया और घना अंधकार छा गया। दो पल में फिर उसका प्रवाह आया और फिर प्रकाश हो गया। दस मिनट में ऐसी तीन-चार आवृत्तियां हुईं। मैंने सोचा, प्रकाश स्वाभाविक नहीं है, वह कृत्रिम है । स्वाभाविक है अंधकार । उसका न कोई शक्तिस्रोत (पावर हाउस) है और न ही उसके लिए कोई बटन दबाना होता है । हर कोई समझ सकता है कि वह कृत्रिम नहीं है। प्रकाश के लिए कितना चाहिए - बिजली - घर, विद्युत्प्रवाह, प्रदीप आदि बहुत कुछ।
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मैंने फिर सोचा, मनुष्य कैसा आग्रही है, जो स्वाभाविक है, उससे दूर भागता है और जो स्वाभाविक नहीं है, उसके लिए प्रयत्न करता है क्षमा स्वाभाविक नहीं है । स्वाभाविक है क्रोध । प्रतिकूल वातावरण में क्रोध सहज ही उभर आता है । क्षमा सहज ही प्राप्त नहीं होती । उसके लिए चिरकालीन अभ्यास करना होता है और अभ्यास करने पर भी अनगिन बार क्रोध क्षमा को पराजित कर देता है ।
मैंने मन-ही-मन सोचा - मैं मुनि हूं और मुनि होने के कारण उपदेष्टा भी हूं। मैं जनता को सम्बोधित कर रहा हूं कि वह क्षमा करे । मैंने क्षमा करने के लिए अनेक बार जनता को सम्बोधित किया है क्रोध करने के लिए उसे कभी सम्बोधित नहीं किया। फिर भी वह जितनी बार और जितना क्रोध करती है, उतनी बार और उतनी क्षमा नहीं करती तो फिर इसका क्या हेतु है कि मैं उसे क्षमा के लिए बार-बार सम्बोधित करूं?
मैंने देखा, एक आदमी बहुत डरता है । वह डर का वातावरण उपस्थित होने पर ही नहीं डरता किन्तु मानसिक कल्पना से भी डरता
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। वह जीवित है । वास्तविक मौत उसकी नहीं हो रही है, फिर भी वह काल्पनिक मौत से डरता है और बहुत बार डरता है । मैंने उसे समझाया कि वह डरे नहीं । मौत एक दिन निश्चित है, डरेगा तो भी और न डरेगा तो भी। डर के बिना जो मौत आएगी, वह दुःखद नहीं होगी । जो डर के साथ आएगी, वह भयंकर होगी। इतना समझाने पर भी वह जितना
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