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१. मैं
मैं मुनि हूं। आचार्यश्री तुलसी का वरद हस्त मुझे प्राप्त है। मेरा मुनि-धर्म जड़ क्रियाकाण्ड से अनुस्यूत नहीं है। मेरी आस्था उस मुनित्व में है जो बुझी हुई ज्योति न हो। मेरी आस्था उस मुनित्व में है, जहां आनंद का सागर हिलोरें भर रहा हो। मेरी आस्था उस मुनित्व में है, जहां शक्ति का स्रोत सतत प्रवाही हो।
मैं एक परम्परा का अनुगमन करता हूं, किन्तु उसके गतिशील तत्त्वों को स्थितिशील नहीं मानता। मैं शास्त्रों से लाभान्वित होता हूं, किन्तु उनका भार ढोने में विश्वास नहीं करता।
मुझे जो दृष्टि प्राप्त हुई है, उसमें अतीत और वर्तमान का वियोग नहीं है, योग है। मुझे जो चेतना प्राप्त हुई है, वह तन-मन के भेद से प्रतिबद्ध नहीं है। मुक्त है, मुझे जो साधना मिली है, वह सत्य की पूजा नहीं करती, शल्य-चिकित्सा करती है।
सत्य की निरंकुश जिज्ञासा ही मेरा जीवन-धर्म है। वही मेरा मुनित्व है। मैं उसे चादर की भांति ओढ़े हुए नहीं हूं। वह बीज की भांति मेरे अन्तस्तल से अंकुरित हो रहा है।
एक दिन भारतीय लोग प्रत्यक्षानुभूति की दिशा में गतिशील थे। अब वह वेग अवरुद्ध हो गया है। आज का भारतीय मानस परोक्षानुभूति से प्रताड़ित है। वह बाहर से अर्थ का ऋण ही नहीं ले रहा है, चिन्तन का ऋण भी ले रहा है। उसकी शक्तिहीनता का यह स्वतः स्फूर्त साक्ष्य है। मेरी आदिम, मध्यम और अन्तिम आकांक्षा यही है कि मैं आज के भारत को परोक्षानुभूति की प्रताड़ना से बचाने और प्रत्यक्षानुभूति की ओर ले जाने में अपना योग दूं।
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