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________________ स्नायविक तनाव का विसर्जन १५७ यह क्रम तीन बार होता है। इससे रक्त-संचार की बाधा समाप्त हो जाती है और कार्बन बाहर निकल आता है। तदनन्तर धीरे-धीरे सांस को बाहर निकालकर हाथ-पैरों को सुविधानुसार फैलाकर शरीर को शिथिल कर दिया जाता है। इस अवस्था में सांस बिलकुल धीमा और सहज हो जाता है। यही पहली क्रिया है। उसके बाद मानसिक क्रिया प्रारम्भ होती है। आंखें मूंदकर दृष्टि को सबसे पहले सिर पर, फिर क्रमशः आंख, नाक, कण्ठ, हाथ, छाती, पेट, जांघ, ऊरु, पैर तथा अंगुलियों पर केन्द्रित करना होता है। प्रत्येक पर ध्यान केन्द्रित होते समय यह चिन्तन चलाते रहना है कि मेरा वह अवयव अवश्य शिथिल हो रहा है। पैर की अंगुलियों पर ध्यान केन्द्रित करते समय यह चिन्तन रहता है कि मेरा तनाव इस मार्ग से, अंगुलियों से, बाहर निकल रहा है। यह दूसरी क्रिया है। - इसके बाद मांसपेशियों को शिथिल करने का क्रम चलता है। नीचे से लेकर ऊपर तक दृष्टि को मांसपेशियों पर केन्द्रित कर उन्हें क्रमशः शिथिल होने की सूचना दी जाती है। यह तीसरी क्रिया है। चौथी क्रिया ममत्व-विसर्जन की है। जब तक शरीर के प्रति थोड़ा भी ममत्व रहता है, मन में कोई उलझन रहती है, तब तक कायोत्सर्ग पूर्णतः नहीं सध पाता। जब व्यक्ति अपने आपको भूल जाए तब उसे समझ लेना चाहिए कि उसका कायोत्सर्ग सध रहा है। जैनेन्द्र-मनुष्य को जब तक 'मैं हूं-'अहम् अस्मि' का अनुभव होता रहता है, तब तक वह लीन नहीं हो सकता। अतः 'वह है' के चिन्तन में ही अहम् से मुक्ति मिल सकती है। 'वह' अखण्ड तत्त्व का . प्रतीक बनता है, 'मैं' खण्डित बोध का। इसीलिए जिस प्रक्रिया में अहं का विसर्जन होता है वही कायोत्सर्ग है। कुछ भक्त भजन में इतने लीन हो जाते हैं कि अपने आपको भूल जाते हैं। इस अवस्था में वे जो कहें, वह इतना संवेदनपूर्ण हो जाता है कि उसका प्रभाव अचूक होता है। विचार-संप्रेषण इसी तन्मयता की उपलब्धि है। जब 'मैं' 'वह' में लीन हो जाता है तो उस एकाग्रता में विचार अपने आप अतिक्रान्त होने लग जाते हैं। इसमें देश की दूरी भी व्यवधान नहीं बन सकती। मुनिश्री-इसे लययोग कहा जाता है। योग के अनेक प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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