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१५८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
हैं-जपयोग, लययोग, ध्यानयोग आदि। पर सब योगों की अन्तिम शर्त है-आत्मा, इन्द्रिय तथा मन की एकलयता। शिष्य का अर्थ ही यही है कि वह गुरु में अपने आपको लीन कर दे। यदि शिष्य गुरु में लीन नहीं होता है तो उसे बौद्धिक उपलब्धि भले ही हो जाए पर उससे परे जो आत्मोपलब्धि है वह नहीं हो सकती। प्राचीन आचार्य शिष्यों को पढ़ाते बहुत थोड़ा थे और अपना काम ज्यादा करवाते थे। वस्तुतः जो शिष्य गुरु में लीन हो जाता था, वह दिनभर गुरु की सेवा में तन्मय रहता था। जब कभी गुरु. उसे थोड़ा-बहुत ज्ञान दे देते उससे उसकी आत्मा जागृत हो जाती थी। आत्मजागृति के सामने बौद्धिक उपलब्धि अत्यन्त तुच्छ वस्तु है। वास्तव में जो दूसरों में अपने आपको लीन नहीं कर देता वह सदा अपने आप में उद्विग्न और चिन्तित रहता है।
इस सारे चिन्तन से हम एक ऐसे स्थल पर पहुंचते हैं, जहां शरीर और आत्मा भिन्न नहीं रह पाते। मेरे विचार से आध्यात्मिक प्रक्रियाओं द्वारा शरीर को स्वस्थ करने की एक बहुत ही समर्थ विधि विकसित की जा सकती है। साधना-केन्द्र में यदि इस आध्यात्मिक चिकित्सा का प्रयोग किया जा सके तो सचमुच यह एक सर्वथा नवीन पद्धति होगी। मानसिक चिकित्सा से भी यह विधि अधिक सार्थक सिद्ध हो सकती है। प्राकृतिक चिकित्सा पर तो आज काफी बल आ ही रहा है, पर अमेरिका में आजकल कुछ ऐसे भी चिकित्सक हैं जो केवल श्वास-प्रक्रिया से रोगों को ठीक कर देते हैं।
६. ग्रन्थि-मोक्ष
हम ग्रन्थि से अपरिचित नहीं हैं। रस्सी में, पेड़ में, शरीर में हमें गांठे देखने को मिलती हैं। जैसे बाह्य द्रव्यों में गांठें घुलती हैं, वैसे ही मन में भी घुलती हैं। बाह्य ग्रन्थियो की अपेक्षा मानसिक ग्रन्थियां अधिक जटिल होती हैं। मानसिक ग्रन्थियों के मूल कारण हैं :
१. मिथ्यादर्शन, २. मानसिक आकांक्षा, ३. कुटिलता।
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