________________
मानसिक एकाग्रता १६५
जैनेन्द्र-मैं अस्मितासूचक अहं की बात कह रहा हूं। मुझे 'मैं आत्मा हूं', इसकी अपेक्षा 'आत्मा है' की भाषा अधिक प्रिय है। ____ मुनिश्री-'मैं आत्मा हूं' इस संकल्प में अस्तिता प्रधान है, अस्मिता नहीं। __ अहं या आत्मा में तन्मयता प्राप्त करने पर व्यक्ति शरीर से विच्छिन्न हो आत्ममय बन जाता है।
८ मानसिक एकाग्रता
व्यक्तिगत साधना के आठ सूत्रों में मानसिक एकाग्रता या ध्यान को आठवां सूत्र क्यों चुना? यह तो पहला होना चाहिए था। यह प्रश्न पैदा होता है और यह बहुत स्वाभाविक है। किन्तु इसके प्रति मेरा दृष्टिकोण यह है-पिछले सात सूत्र प्रारम्भिक हैं, ध्यान की भूमिका के रूप में हैं। यदि वे सध जाते हैं तो ध्यान की साधना सहज हो जाती है। प्रारम्भ में मन की चंचलता का निरोध कठिन होता है।
एकाग्रता होने में तीन बाधाएं हैं-स्मृति, कल्पना और वर्तमान की घटना।
स्मृति-अतीत की घटनाएं जो घट चुकी हैं, वे निमित्त पाकर उभर आती हैं। बीस वर्ष पहले किसी गांव में गए थे। उस क्षेत्र को देखते ही वहां की स्मृतियां ताजी बन जाती हैं, यह दैशिक-स्मृति है। ग्रीष्म ऋतु आते ही पहले ग्रीष्म की घटनाएं उभर जाती हैं, यह कालिक-स्मृति है। बाह्य वृत्त और व्यक्ति का संधान होते ही स्मृति जाग उठती है और उसमें मन उलझ जाता है। यह वैयक्तिक स्मृति है।
कल्पना-स्मृति अतीत की बाधा है तो कल्पना भविष्य की बाधा है। क्या करना है, क्या लिखना है, कहां से रुपये लाना है आदि अनेक कल्पनाएं मन संजोता रहता है। कल्पना वर्तमान में सत्य नहीं होती। अतीत की स्मृति मन को आन्दोलित करती है, वैसे ही भविष्य की कल्पना भी मन को आन्दोलित करती है।
वर्तमान की घटना-वर्तमान की घटना भी मन को आन्दोलित करती है। मन तत्काल बाह्य वस्तुओं से सम्बन्ध स्थापित कर आन्दोलित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org