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१६४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
जप उनका करना चाहिए जो हमारे आदर्श हैं। इसस आस्था का निर्माण होता है। वीतराग (पवित्र आत्मा) के जप से मन उसी भावना से रंग जाता है। हर शब्द की शरीर पर क्रिया होती है। भिन्न-भिन्न शब्द का भिन्न-भिन्न रोगों पर असर पड़ता है। इसी आधार पर शब्द-चिकित्सा चली। शब्द वायुमण्डल में प्रकम्पन पैदा करता है और स्फोट भी करता है। वह अणु-स्फोट से कम प्रभावी नहीं है।
संकल्प विधायक होना चाहिए। 'मैं क्रोध नहीं करूंगा', इसके स्थान पर 'मेरा प्रेम बढ़ रहा है'-ऐसा संकल्प होना चाहिए। ऋणात्मक की अपेक्षा धनात्मक अधिक फल लाता है। संकल्प की विधेयात्मकता में नकारात्मकता स्वयं लीन हो जाती है।
भगवती सूत्र का एक प्रसंग है। भगवान् महावीर से पूछा गया-'भगवन्! अग्निपक्व अन्न वनस्पतिकाय है या तैजसकाय? उत्तर मिला-'तैजसकाय।' वह तेजस् से भावित हो गया, इसलिए जो अन्न वनस्पति था वह तैजस हो गया। यह तादात्म्य है। इसमें पूर्वावस्था उत्तरावस्था में विलीन हो जाती है।
संकल्प लम्बे समय तक किया जाए, यह उसकी सफलता का रहस्य है। लीनता या तादात्म्य-स्थापना के लिए अल्प-काल पर्याप्त नहीं होता। मैं पवित्र हूं, इस संकल्प को कम-से-कम पचास मिनट तक किया जाए
और इतनी तन्मयता से किया जाए कि उसमें ध्याता और ध्येय का भेद ही नहीं रहे। ऐसी तन्मयता ही फल लाती है। इसे जैनाचार्य 'समरसीभाव' और पतंजलि ‘समापत्ति' कहते हैं। संकल्प का हृदय शब्दोच्चारण में नहीं है, किन्तु संकल्प और संकल्पकार की एकात्मकता में है।
जैनेन्द्र-प्रातःकालीन प्रार्थना के समय जो संकल्प करा रहे हैं, उससे मुझे खतरा दिखाई देता है।
मुनिश्री-खतरा क्या है?
जैनेन्द्र-मैं ऐसा मानता हूं कि अहं से मुक्त हुए बिना बंधन नहीं कटता।
मुनिश्री-अहं को आप बंधन ही क्यों मानते हैं? वह अस्तित्व भी तो है।
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