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१६६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति हो जाता है। हम चाहते हैं, हमारा मन आन्दोलित न हो या उतना न हो जितना होता है तो उसके लिए तीनों बाधाओं से मुक्ति पाना अपेक्षित है। उसका मार्ग ध्यान है। तीनों से विच्छिन्नता प्राप्त कर चैतन्य सूत्र को चैतन्य से जोड़ देना यही बस ध्यान है। ध्यान की पुरानी परिभाषा है : 'ज्ञानान्तराऽस्पर्शवती ज्ञानसन्ततिः ध्यानम्।'
चैतन्य का वह प्रवाह ध्यान है जो ज्ञानान्तर का स्पर्श न करे। इसमें निरन्तर स्व-द्रव्य का स्पर्श और पर-द्रव्य का अस्पर्श होता है, इसलिए इसे ज्ञान-सन्तति कहा जा सकता है।
अपने में लीन होना ध्यान है। आत्मा 'स्व' है और शेष सब 'पर' है। 'पर' से निवृत्त हो शुद्ध आत्मा का चिन्तन लेकर उसके साथ तादात्म्य स्थापित करना आत्मज्ञान है। और जो पहले क्षण का ज्ञान है, वही दूसरे-तीसरे क्षण में होता है, क्रम-भंग नहीं होता, यही संतति है। जैसे दीपशिखा है, प्रथम क्षण की लौ चली गई, दूसरी और तीसरी आयी, वह भी चली गई। ऐसा उसमें वर्तमान का अतीत के साथ सम्बन्ध होता है। दीपशिखा की भांति चिन्तन-प्रवाह का वैसा होना ही एकाग्रता है।
ध्यान का मुख्य विषय परमात्मा का शुद्ध स्वरूप है। जो चेतना बहिर्मुखी थी, उसे हटा आत्मा में लीन करना है।
जैनेन्द्र-ध्याता और ध्येय-यह द्वैत न हो वहां एकत्व कैसे सम्भव है? आत्मा आत्मा में लीन-यह कैसी स्थिति है?
मुनिश्री-आत्मा का आत्मा में लीन होना यह स्थिति का द्वैत है। जिसमें लीन होना है, वह शुद्ध अवस्था है। जिसे लीन होना है, वह बहिर्मुखी अवस्था है।
जैनेन्द्र-मुझे ध्यान खतरनाक लगता है। उसे स्व-रति के खतरे से बचना है। थोड़ा ध्यान जिसमें स्वास्थ्य-लाभ हो, जिसका सेवा में उपयोग हो, जिसे आत्मरमण कहते हैं, वह ठीक है, पर आत्म-रमण और स्व-रति में भेद है। आत्म-रमण बड़ा शब्द है। स्व-रति मनोविज्ञान में भी चलता है, वह संकुचित है। भक्त और भगवान् दो हैं। भक्त अपनी ही भक्ति में स्व का द्वैत उत्पन्न करे, फिर एकीकरण करे? - मुनिश्री-द्वैत और एकीकरण, यह दोनों प्रक्रियाओं में समान है। एक जगह भगवान् और भक्त का एकीकरण है तो दूसरी जगह आत्मा
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