________________
मानसिक एकाग्रता १६७
की दो भिन्न स्थितियों का एकीकरण है। सहारे की अपेक्षा हो तो वह उसमें भी है और इसमें भी है।
जैनेन्द्र-जो 'स्व' में ही निष्ठ हो गया, होते-होते निकम्मा ही नहीं, विक्षिप्त हो गया। परिस्थिति से सम्बन्ध रह नहीं सका।
मुनिश्री-यह परिस्थिति की तुलना में स्व-निष्ठा की बात नहीं है। स्व-निष्ठा का अर्थ चैतन्य है, प्रबुद्धता है और वह प्रबुद्धता जिसमें चैतन्य ही चैतन्य हो। साधनाकाल में ध्याता और ध्येय का विभाग रहता है, सिद्धि-काल में वे दोनों एक हो जाते हैं।
जैनेन्द्र-चैतन्य का स्वभाव सिमटकर सीमित होना नहीं है। चेतना बाहर से लौटकर भीतर की ओर नहीं आती, वह बाहर की ओर फैलकर विराट् बन जाती है।
मुनिश्री-चैतन्य का भीतर की ओर लौटने का अर्थ सिमटना नहीं किन्तु विस्तार ही है। आप क्षेत्रीय विस्तार की भाषा में कह रहे हैं, मैं शक्ति-विस्तार की भाषा में कह रहा हूं। क्षेत्रीय दृष्टि से तो आकाश भी विराट् है। चैतन्य की विराटता उससे विलक्षण है।
जैनेन्द्र-आप कहते हैं, कल्पना को समाप्त कर दो। मैं कहता हूं कल्पना को मुक्त कर दो।
मुनिश्री-साधना के कुछ स्तरों में आपकी भाषा मान्य हो सकती है। साधना का स्तर सबका एक नहीं होता।
जैनेन्द्र-कल्पना को छोड़ने में लगे हुए अधिक बिखर गए हैं, यह मैंने देखा है।
मुनिश्री-उनका आत्मा के साथ ठीक योग नहीं हुआ।
जैनेन्द्र-योग शब्द ठीक है। पहले आपने विच्छिन्न कहा। यदि योग है तो यह मैं भी मानता हूं।
मुनिश्री-मैंने तो पहले ही कहा था, स्व-द्रव्य के साथ योग और पर-द्रव्य के साथ अयोग। कोरा अयोग या विच्छेद नहीं कहा था।
मोहन (जैनेन्द्रजी से)-छोड़ते जाओ, छोड़ते जाओ, यह तो समझ में आता है पर विस्तार करते जाओ, यह भाषा समझने में कठिनाई है। इसका व्यावहारिक रूप क्या है?
जैनेन्द्र-आचार्य तुलसी के प्रति आपकी श्रद्धा है। तुलसीजी में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org