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१६८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
आपका लीन होना सरल है। जैनेन्द्र जैनेन्द्र में लीन हो जाए, यह कठिन लगता है। अपने से दूसरों में लीन होना विस्तार है और वह सरल भी
मुनिश्री-स्वलीन या परलीन यह भाषा-भेद है। भाषा कोई सत्य नहीं है। सत्य जहां पहुंचता है, वहां पहुंचना है।
जैनेन्द्र-आत्मा के नाम पर अहं की साधना होने से धर्म अधर्म बन जाता है।
मुनिश्री-अहं शब्द एक है पर इसके दो रूप हैं। अहं अस्मित्व का सूचक हो तो वह अधर्म हो सकता है पर अस्तित्व का सूचक हो तो वह अधर्म कैसे होगा? विषय-विच्छेद की प्रक्रिया ध्येय के साथ तादात्म्य स्थापित करने की प्रक्रिया प्रत्याहार है। उसके लिए एक मुद्रा है-सर्वेन्द्रियोपरम। इससे मानसिक शान्ति मिलती है। दो-चार मिनट इस मुद्रा में रहने से घंटे-भर का श्रम मिट जाता है। कितना ही मन बिखरा हो, इस मुद्रा से केन्द्रित हो जाता है। रस-विच्छेद की प्रक्रिया ध्यान के चार प्रकार हैं-पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ और रूपातीत। एकाग्रता में एक आलम्बन लेना होता है, चाहे वह परमात्मा का हो, आत्मा का हो या किसी बाह्य वस्तु का हो। पिण्डस्थ में अपने शरीर का आलम्बन लेकर अभ्यास किया जाता है। शरीर में नासाग्र आदि सोलह स्थानों पर मन का योग करने से शान्ति मिलती है।
जैनेन्द्र-ध्यान में प्रवृत्ति-शून्यता या अहं की वृद्धि का खतरा है।
मुनिश्री-ध्यान में सहज आनन्द की अनुभूति होती है। मैं अपने में देखता हूं। ध्यान के लिए कुछ समय लगाता हूं, फिर भी मेरी प्रवृत्ति कम नहीं हुई है और न मुझे अहं सताता है, प्रत्युत आनन्द का अनुभव कर रहा हूं। इसलिए मुझे लगता है कि ध्यान कोई खतरा नहीं है। जहां आनन्द नहीं मिलता, वहां ध्यान की प्रक्रिया में गलती हो सकती है।
जैनेन्द्र-मेरे जीवन में कम-से-कम एक दर्जन व्यक्ति आए। दो-दो
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