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________________ मानसिक एकाग्रता १६६ घंटे ध्यान करते थे, फिर भी उनका मन बिखर रहा है । मुनिश्री - प्रक्रिया में कहीं गलती हो सकती है, अन्यथा ध्यान से आनन्द ही मिलता है, मन बिखरता नहीं । राजसमन्द में रजनीशजी आए । ध्यान के विषय में बात चली । उन्होंने निरालम्ब की बात पर बल दिया। मैंने कहा- यह आगे की भूमिका है। प्रारम्भ में आलम्बन के बिना कठिनता आती है। नाभि का आलम्बन मन को एकाग्र करने में बहुत सहायक बनता है। जहां से श्वास स्पन्दन होता है, उस पर नियंत्रण होता है। उससे एकलयता आती है । मन की स्थिरता आती है । भृकुटी, नासाग्र, कण्ठ, हृदय, नाभि, उपस्थ, पादांगुष्ठ- ये चेतना के केन्द्र - स्थान हैं। मन को इन शरीरकेन्द्रों में केन्द्रित करना पिण्डस्थ ध्यान है । पदस्थ ध्यान में शब्दों का आलम्बन लिया जाता है । जो शब्द इष्ट हैं- परमात्मा या कोई, उसका आलम्बन लिया जाए। रूपस्थ ध्यान में अपने से भिन्न किसी मूर्त-वस्तु के साथ सम्बन्ध कर ध्यान करना होता है । मूर्ति का विकास इसी रूपस्थ ध्यान के सहारे हुआ है । एकलव्य को शस्त्र कला में पारंगत होना था । उसके लिए सबसे सुन्दर आलम्बन द्रोणाचार्य थे। उनकी मूर्ति को आलम्बन बना वह उस कार्य में लीन हो गया । । रूपातीत ध्यान परम आत्मा का ध्यान है। इससे रस - निवृत्ति हो जाती है । यह रस - विच्छेद की प्रक्रिया है। गीता में बताया है : 'विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोप्यस्य, परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥' विषय और रस दो हैं । विषय बाहर है, रस भीतर है। जैन - भाषा में रस का अर्थ विकार है । विषय २३ हैं और विकार २४४ हैं। आंखें 1 मूंद लेने से विषय नहीं मिलता पर रस नहीं मिटता । यह तभी मिटता हैं, जब 'परं' का दर्शन हो जाता है । परं यानी परमात्मा । वह रस- वर्ज है, निर्विकार है, लक्ष्य है, जो आप होना चाहते हैं, वह है । उस 'परं' के दर्शन से रस निवृत्त हो जाता है। ध्यान में विषय की निवृत्ति और रस की निवृत्ति - दोनों हो जाती हैं। जैनेन्द्र- क्या मुक्ति अभावात्मक स्थिति है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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