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१७ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
___मुनिश्री-नहीं, भावात्मक है। वहां ससीम सुख की निवृत्ति होती है तो असीम सुख की उपलब्धि होती है। परमात्मा का आनन्द अनन्त है। अचल है, अक्षर है। यहां के सुख क्षरणशील हैं। मनुष्य इतना मूर्ख नहीं, कि सत्ता को छोड़ शून्यता में जाए। वैशेषिक की अभावात्मक मुक्ति का उपहास करते हुए किसी नैयायिक आचार्य ने लिखा है :
'वरं वृन्दावने रम्ये, क्रोष्ट्रत्वमभिवांछितम् ।
न तु वैशेषिकी मुक्तिं, गौतमो गन्तुमिच्छति ॥' 'वृन्दावन में सियाल होना मान्य है पर वैशेषिक की मुक्ति में जाना गौतम को मान्य नहीं है।' मुक्ति भावाभावात्मक स्थिति है
'अत एवान्यशून्योपि, नात्मा शून्यः स्वरूपतः ।
शून्याशून्यस्वभावोऽयमात्मनैवोपलभ्यते ॥' __हम अनन्त ज्ञान चाहते हैं, अनन्त आनन्द चाहते हैं, अनन्त पवित्रता और शक्ति चाहते हैं। जहां ये नहीं, वहां धर्म नहीं है। हमारे ये चार लक्ष्य हैं। उपलब्धि चाहे कम हो, लक्ष्य यही है। यह चेतना की विकसित अवस्था है। अभावात्मक अवस्था नहीं है। जिसे हम नहीं चाहते, वह सान्त अवस्था है। उसकी सत्ता वहां समाप्त हो जाती है, इसलिए वह भावाभावात्मक है।
जैनेन्द्र-कुछ सर्वोदयी नेता जे. के. कृष्णमूर्ति की ओर झुक रहे हैं। एक दिन दादा धर्माधिकारी मुझे भी उनके पास ले गए। बात सुनने में बेहद ठीक है। वे निश्चय की भाषा में बोलते हैं। कहने से आगे उतरती नहीं। कहते हैं-समय की सत्ता नहीं पर सात रोज का कार्यक्रम आगे का बंधा रहता है।
मुनि सुख-तीर्थंकर और केवली की वीतरागता समान है। तीर्थंकर तीर्थ की रचना करने में प्रवृत्त होते हैं और केवली नहीं। तो क्या वीतरागता की परिपूर्णता रचना में है?
मुनिश्री-रचना संवेदन में से प्राप्त होती है पर उसका आकार अपने सामर्थ्य और भूमिका के अनुसार होता है। शरीर व्यवहार और
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