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व्यक्तिगत साधना के आठ सूत्र
१. उदर-शुद्धि
सुखी और स्वस्थ जीवन का माध्यम उदर है। जितने रोग होते हैं, वे प्रायः उदर-विकृति के कारण ही होते हैं। आरोग्य की जड़ उदर है। उदर की शुद्धि का संबंध तीन से है। वे हैं-आहार, निहार और विहार।
आहार
अधिकांश लोग अनियमित आहार करते हैं, कभी कम करते हैं तो कभी अधिक। कभी विरुद्ध भोजन करते हैं तो कभी असंतुलित। शरीरशास्त्रियों की दृष्टि से भोजन न अति मात्रा में होना चाहिए और न हीन-मात्रा में। कम खाना भी मलोत्सर्ग में रुकावट पैदा करता है। अतिमात्र आहार करना तो हर दृष्टि से दोषपूर्ण है। भोजन आमाशय में जाता है। आमाशय अपनी शक्ति के अनुसार ही उसका घोल बनाता है। अधिक मात्रा होने से कुछ घोल कच्चा रह जाता है जिसे आम कहते हैं। आम का संचय होने से उदरशूल, गैस, सिरदर्द आदि कई रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
अध्यशन आहार का एक दोष है। पहले खाया हुआ पचा नहीं, उसी बीच और खाना अध्यशन है। सम्भव हो तो पांच घंटे या कम-से-कम तीन घंटे पहले दूसरी बार अन्न न खाया जाए। यह सामान्य मर्यादा रही है। कुछ हल्के भोजन जल्दी पच जाते हैं, पर अन्न तीन घंटे से पहले नहीं पचता। पचने से पूर्व खाने से घोल कच्चा ही रह जाता है। प्राचीनकाल में भोजन दो बार किया जाता था, कभी-कभी तीन बार भी। किन्तु आजकल इस सिद्धांत में परिवर्तन आ गया है। कई डॉक्टर
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