________________
सत्-व्यवहार १७३
मैं समझता हूं कि हृदय में अहिंसा और अध्यात्म है और व्यवहार में क्रूरता है, क्या यह सम्भव है? धार्मिक का व्यवहार क्रूर हो ही नहीं सकता। इसलिए व्यवहार के सत् होने में एक शर्त है कि वह मृदु हो।
जैनेन्द्र-कहीं असष्णुिता भी सद्व्यवहार का अंग हो सकती है? मुनिश्री-हां, हो सकती है। जैनेन्द्र-असिहष्णुता होगी तो कठोरता आ जाएगी।
मुनिश्री-कुम्हार घड़े को पीटता है पर नीचे उसका हाथ रहता है। मृदु-व्यवहार में इसका अवकाश है।
जैनेन्द्र-सत् व्यवहार की कसौटी आत्मीयता हो सकती है, मृदुता कैसे?
मुनिश्री-मैंने क्रूरता के प्रतिपक्ष में मृदुता का प्रतिपादन किया, कठोरता के प्रतिपक्ष में नहीं। कठोरता क्रूरता से भिन्न है। मां का पुत्र के प्रति और गुरु का शिष्य के प्रति आवश्यकतावश कठोर-भाव हो सकता है, पर क्रूरता नहीं।
भगवान् महावीर ने क्रूर व्यवहार को वर्जित करने वाले अनेक व्रतों का विधान किया। वृत्तिच्छेद, बन्ध, अंगच्छेद, अतिभार आदि-आदि के वर्जन को चाहे आप अहिंसा कहें, चाहे क्रूर व्यवहार का वर्जन। नौकर, मुनीम आदि जो अपने आश्रित हों, उनकी आजीविका का विच्छेद करना वर्जित है। वह धार्मिक भी कहां है, जो गाय के दूध न देने पर घास न डाले। पशु पर अधिक भार न लादा जाए, यह क्रूर व्यवहार का वर्जन है। क्रूरता में धर्म टिकेगा कैसे? भोजन में अमृत भी है, जहर भी है। दोनों एक साथ कैसे होंगे? धर्म भी है, क्रूरता भी है, दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते । व्यवहार में क्रूरता है तो वहां धर्म की आशा नहीं करनी चाहिए। व्यवहार की मृदुता का एक सूत्र है-इच्छाकार। यह जैन मुनियों की एक सामाचारी है। इसका हार्द है- 'यदि आप चाहें तो यह काम करें।' गुरु भी सामान्यतया इच्छाकार सामाचारी का प्रयोग करते हैं। फिर व्यवस्था कैसे चलेगी? आज्ञा देना-करना ही होगा-यह विशेष स्थिति में प्राप्त है। जितना मेरा अस्तित्व है, उतना ही सामनेवाले का है। दोनों का अस्तित्व सापेक्षता से जुड़ा है। एक मेरी अपेक्षा है, एक दूसरे की है। मैं उसकी अपेक्षा में योग दूं और वह मेरी अपेक्षा में योग दे, यह समाज या सामूहिकता का आधार है। प्राचीनकाल में दास क्रीत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org