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१७४ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति
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होता था । खरीदने के बाद वह उसका होता था । क्रीत को प्राणदण्ड भी दिया जाता था । इसीलिए दास प्रथा जघन्य मानी गई और उसका विच्छेद किया गया ।
कपट
कुछ लोग कहते हैं कि आज के युग में सरलता उपादेय नहीं है। मुझे लगता है कि सरलता शाश्वत सत्य है । वह सदा उपादेय और उसके बिना मन की शान्ति मिल ही नहीं सकती। सरलता को अनुपादेय बताने वाले भूल जाते हैं कि सरलता और भोलापन एक नहीं है ।
कुछ शब्द रूढ़ हो गए हैं । उनमें परिवर्तन की अपेक्षा है ।
जैनेन्द्र- सदाचार शब्द चलता है । किन्तु समाचार काफी नहीं, सत्याचार होना चाहिए । सदाचार समाज की मानी हुई तात्कालिक नीति है । यदि धर्माचरण का विचार भी वहीं तक रह गया तो जिस क्रान्ति की आवश्यकता है, वह धर्म की ओर से नहीं आएगी, धर्म को उससे गहरे जाना चाहिए । शान्ति, सहिष्णुता आदि शब्द भी कुछ वैसे ही रूढ़ार्थ में प्रयुक्त होने लगे हैं ।
मुनिश्री - सदाचार में सत् शब्द है, वह भी सत्य का वाचक है । सत् अर्थात् सत्य । समय की मर्यादा के साथ दूसरा अर्थ आ गया । सदाचार सत्याचार ही न रहा, अच्छा आचार भी बन गया । भाषाशास्त्र के अनुसार शब्द का अपकर्ष और उत्कर्ष होता रहा है
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जैनेन्द्र- सत्याचार की अभिव्यक्ति वह होगी, जो आज सदाचार में नहीं है ।
मुनिश्री - यह ठीक है । सदाचार के पीछे जो भावना आ गई है, शब्द - परिवर्तन से उसमें भावना भी परिवर्तित हो सकती है ।
जैनेन्द्र- साहित्य में प्रतिक्रिया और पलायन - दो शब्द बहुत चल रहे हैं। मुझे पलायनवादी कहा जाता है। मैं कहता हूं, ऐसा कौन है जो बैल को समाने देखकर पलायन न करे?
मुनिश्री - हर शब्द की यही स्थिति है। उत्कर्ष, अपकर्ष, उत्क्रान्ति अपक्रान्ति से मुक्त कोई शब्द नहीं है। आज से दो-ढाई हजार वर्ष पहले 'पाषंड' शब्द श्रमण सूचक था । अशोक के शिलालेख, जैन और बौद्ध
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