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सामुदायिक साधना के आठ सूत्र
१. सत्-व्यवहार
सत् के दो अर्थ हैं। पहला अर्थ है-सत् अर्थात् सत्ता, अस्तित्व। दूसरा अर्थ है-सत् यानी अच्छा। सत् के ये दो अर्थ प्रचलित हैं। यहां दोनों ही अर्थ गृहीत हैं। सत्-व्यवहार यानी आत्मीय व्यवहार या सौजन्य-पूर्ण व्यवहार। आत्मीय तो प्रथम है ही। सौजन्यपूर्ण व्यवहार को भी बहुत महत्त्व दिया गया था। आचार्य सोमप्रभ ने लिखा है :
वरं विभववन्ध्यता सुजनभावभाजां नृणामसाधुचरितार्जिता न पुनरूर्जिताः सम्पदः । कृशत्वमपि शोभते सहजमायतौ सुन्दरं,
विपाकविरसा न तु श्वयथुसंभवा स्थूलता। सौजन्य अच्छा है, भले फिर कुछ भी न मिले। दौर्जन्य से कुछ मिलता है तो वह शोथ-जनित स्थूलता है। उस स्थूलता की अपेक्षा कृशत्व बहुत अच्छा है। वह स्थूलता रोग है और कृशता स्वास्थ्य।
असत्-व्यवहार की कसौटी क्या है जिससे कसकर हम समझ सकें कि यह व्यवहार असत् है और यह सत् ? असत्-व्यवहार की तीन कसौटियां हैं-क्रूरता, कपट और निरपेक्षता। सद्व्यवहार की तीन कसौटियां हैं-मूदुता, मैत्री और सापेक्षता।
क्रूरता जिस व्यवहार की भूमिका में क्रूरता हो, वह सत् नहीं हो सकता। कई धार्मिक कहते हैं-धार्मिक के लिए व्यवहार की क्या आवश्यकता है? पर
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