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सत्य, सम्प्रदाय और परम्परा १२५
'पहले नहीं था और अब है' की कोई मीमांसा नहीं हो सकती। ___इस मनोदशा के कारण ही बहुत बार अपेक्षित परिवर्तन करने में भी जैन आचार्य सकुचाते हैं। परम्परा में प्राण हो, उसे बदलना बुद्धिमत्ता नहीं है, किन्तु निष्प्राण परम्परा को चलाते रहना भी बुद्धिमत्ता नहीं है।
आज अनेक जैन मनीषी इस सन्देह-दशा को पाल-पोष रहे हैं कि प्रस्तुत अर्थ-परम्परा संगत नहीं है, फिर भी वे उसे बदलने में इसलिए सकुचाते हैं कि वह बहुत लम्बे समय से चलती आ रही है। जो परम्परा काल की लम्बी अवधि में पल-पुस जाती है, संस्कार की आंच में पक जाती है, वह शाश्वत सत्य जैसी अपरिवर्तनीय हो जाती है। किन्तु सत्य की मांग भिन्न है। कोई भी कृत नियम अनन्त या निरवधिक नहीं है। जो कृत है वह सावधिक है। निरवधिक वही है जो अकृत है-स्वाभाविक है। देश, काल और परिस्थिति के सन्दर्भ से मुक्त कोई परम्परा नहीं है। हम पर्युषण (सम्वत्सरी) पर विचार करें। पर्युषण ढाई हजार वर्ष पुरानी वर्षाकालीन स्थिति का सूचक है। आज उसके साथ अनेक कल्पनाएं जुड़ गई हैं। उन कल्पनाओं का परिणाम यह है कि आज वह विवादास्पद है। किसी परम्परा में उसके लिए चतुर्थी का दिन मान्य है तो किसी में पंचमी का और किसी में चतुर्दशी का। मान्य करने वाली परम्पराओं में भी कोई परम्परा उदित तिथि के अनुसार पंचमी को पर्युषण करता है तो कोई घड़ियों में आयी तिथि के अनुसार चतुर्थी को ही पर्युषण कर लेता है। पर्युषण का मूल तत्त्व कहीं रह गया है और वह कब होना चाहिए-यह प्रश्न मुख्य बन गया है। इस प्रकार न जाने और भी कितने प्रश्न, जो गौण थे वे मुख्य और जो मुख्य थे वे गौण बने हुए हैं। इन प्रश्नों का समाधान परम्परा को सत्य से सम्बद्ध करने पर ही प्राप्त हो सकता है। जो सत्य हमें कल तक नहीं मिला वह आज मिल सकता है और जो आज नहीं मिला, वह कल तक मिल सकता है। सत्य की शोध और उपलब्धि तब तक होती रहेगी जब तक मनुष्य का अस्तित्व रहेगा।
उपलब्ध सत्य के प्रति हम जितने आस्थावान् हैं, उतने ही आस्थावान् अनुपलब्ध सत्य के प्रति रहें तो हमारी अनेक समस्याएं सुलझ जाएं। सत्य की उपलब्धि का राजपथ आध्यात्मिक चेतना का जागरण है। हमारी आध्यात्मिक अनुभूति जितनी तीव्र होगी, उतनी ही हमारी
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