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१२६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति बुद्धि आग्रहहीन होगी। आग्रह से बढ़कर सत्य का कोई सघन आवरण नहीं है। वह आध्यात्मिक भावना से अपरिष्कृत बुद्धि में पलता है। यदि हम चाहते हैं कि धर्म-सम्प्रदायों में एकता हो, वैमनस्य का विसर्जन हो, तो आध्यात्मिक विकास की प्रक्रियाओं को प्राथमिकता दें। उनका विकास चाहे-अनचाहे एकता या समन्वय का विकास है और उसका ह्रास चाहे-अनचाहे एकता या समन्वय का ह्रास है।
२६. शाश्वत सत्य और युगीन सत्य
जब से मनुष्य का बौद्धिक विकास हुआ है तब से सत्य की चर्चा चलती रही है। दर्शन की भूमिका पर सत्य की तीन धाराएं हैं-शाश्वतवाद, अशाश्वतवाद और शाश्वत-अशाश्वतवाद।
पहली धारा के प्रतिपादक कूटस्थ नित्यवादी हैं। वे मानते हैं-मूल तत्त्व नितान्त शाश्वत है, उसमें कहीं परिवर्तन का अवकाश नहीं है।
दूसरी धारा के प्रतिपादक क्षणिकवादी हैं। उनके मतानुसार जो है वह सब प्रतिक्षण परिवर्तित होता है।
तीसरी धारा के प्रतिपादक अनेकान्तवादी हैं। वे प्रत्येक तत्त्व को शाश्वत और अशाश्वत-इन दोनों रूपों में स्वीकार करते हैं। ___भाषा के प्रयोग में स्पष्टता देश, काल और व्यक्ति के सन्दर्भ में ही आती है। उनके बिना पूर्ण अर्थ नहीं मिलता। 'मैं जाऊंगा'-इसमें अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं है जब तक यह न कहूं कि मैं अमुक गांव जाऊंगा, अमुक समय में जाऊंगा। _ 'अमुक व्यक्ति यहां नहीं है'-इस वाक्य में उसका अस्तित्व तो है पर जिस क्षेत्र में हम उसे देखना चाहते हैं उस क्षेत्र में वह नहीं है, यह देशकृत अनित्यता है। 'अभी नहीं है'-यह कालकृत अनित्यता है। जो वस्तु देश और काल से अबाधित होती है, वह शाश्वत है। शाश्वत हर देश और हर काल में उपलब्ध होता है। जितने तत्त्व हैं वे सब शाश्वत हैं। दुनिया में जितना था उतना ही है और उतना ही रहेगा। न एक परमाणु घटता है और न एक परमाणु बढ़ता है। मूल तत्त्व शाश्वत है और विस्तार युगीन है।
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