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शाश्वत सत्य और युगीन सत्य १२७
अधिकांश धार्मिक अपने नियमों को शाश्वत मानते हैं । चिंतन किए बिना हर वस्तु को शाश्वत कहा जा सकता है पर वस्तुवृत्या क्या कोई विस्तार शाश्वत होता है? हम कहते हैं- धर्म शाश्वत है । आखिर धर्म स्वयं में क्या है ? मनुष्य हर तथ्य को भाषा के माध्यम से प्रस्तुत करता है । भाषा के आधार पर बने नियम और परिभाषा शाश्वत कैसे होगी, जबकि भाषा स्वयं अशाश्वत है ? शाश्वत वह है जो स्वाभाविक है । धर्म, जो आत्मा की सहज पवित्रता है, वह शाश्वत है। धर्म का प्रतिपादन करने के लिए जितनी परिभाषाएं और नियम बने हैं, वे शाश्वत कैसे हो सकते हैं? आज तक धर्म की जो परिभाषाएं बनी हैं, उनमें क्या कोई शाश्वत रही है? जो कृत होता है, वह शाश्वत नहीं होता। परिभाषाएं मनुष्यकृत हैं, इसलिए वे शाश्वत नहीं हो सकतीं। कहा जाता है- अहिंसा, सत्य आदि शाश्वत हैं । प्रश्न है अहिंसा है क्या? जहां आकार होता है, वहां शाश्वतता समाप्त हो जाती है । अहिंसा आत्मा की सहजता है, वह शाश्वत हो सकती है ।
संस्कार सदा अतीत की ओर ले जाता है । साम्यवादी, जो शास्त्र को नहीं मानते, वे भी शास्त्र की दुहाई देते हैं । महान् विचारक माओ कहते हैं - रूस संशोधनवादी हो गया है, क्योंकि वह लेनिन की विचारधारा से हट गया है। एक ओर वे शास्त्र को अस्वीकार करते हैं और दूसरी ओर उससे चिपके हुए हैं। चीन ने सामन्तशाही परम्परा को बदला, किन्तु उस परिवर्तन में जो सिद्धान्त काम में लिये गये उन्हें शाश्वत मान लिया ।
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शंकराचार्य ने शास्त्र - वासना को काम-वासना की कोटि में रखा है मनुष्य में शब्दों की पकड़ अधिक होती है । अतीत, अभ्यस्त और प्राचीन के प्रति मोह होता है । सद्यस्क के प्रति उतना लगाव नहीं होता, जितना चिरपुराण के प्रति होता है । वह वर्तमान में जीता है पर वर्तमान की अपेक्षा अतीत को अधिक देखता है। इसलिए जो युग - सत्य आता है उसे समझने में कठिनता होती है । जो वस्तु अपना कार्य कर चुकी, उसके प्रति हमारा सम्मान हो सकता है, पर उसकी नियामकता कैसे हो सकती है?
जिसकी उपयोगिता समाप्त हो गई, उससे चिपके रहना बुद्धिमानी नहीं है। विकास उनमें होता है, जो परिवर्तन की बात सोचते हैं।
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