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१८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
इसी भूमिका में मैंने बुद्धि के प्रामाण्य को अस्वीकार किया है; बुद्धि द्वारा प्रकल्पित, शरीर और आत्मा के अभेद या भेद को अस्वीकार किया है। ___इस भूमिका से पूर्व जो शोध हो रही थी, वह बुद्धि-प्रेरित थी। बौद्धिक भूमिका में मैं और चित् तत्त्व भिन्न-भिन्न प्रतीत हो रहे थे। मैं शोध करने वाला था और चित् तत्त्व था शोध्य। एक ही तत्त्व के शोध्य और शोधक-ये दो रूप नहीं हो सकते। बुद्धि ने मेरे और अस्तित्व के बीच में व्यवधान डाल रखा था। जैसे ही मैंने चेतना के प्रवाह का बुद्धि के स्रोत से जाना निरुद्ध किया, वैसे ही मेरे और मेरे अस्तित्व के मध्य का व्यवधान समाप्त हो गया। अब मैं अपने अस्तित्व से भिन्न नहीं हैं, इसलिए मेरा शोध्य-शोधक भाव भी समाप्त हो गया है। ... मैं देखता हूं, प्राचीन साहित्य में जो दीप जल रहा था, वह आज बुझने लगा है। आज दीप के आसन पर बल्ब आ बैठा है। जब लोग बिजली की शक्ति से अनजान थे, तब उनके आलोक का साधन दीप था। जब लोग बिजली से परिचित हुए, तब दीप का अवमूल्यन हो गया। मैं देखता हूं, एक दिन बुद्धि का भी अवमूल्यन होने वाला है। हम अपनी सहज चेतना की प्रकाश-धारा से अपरिचित हैं, इसलिए बुद्धि का प्रदीप हमें जगमगाता-सा लगता है। जैसे ही हम अपनी सहज चेतना से परिचित होंगे कि बुद्धि का आसन हिल जाएगा।
बौद्धिक भूमिका में परोक्ष को प्रत्यक्ष माना जा रहा है। इन्द्रियों में प्रत्यक्षानुभूति की क्षमता नहीं है। उनका ग्रहण बहुत ही त्रुटिपूर्ण और बाह्य उपकरण सापेक्ष होता है। आंख देखती है पर प्रकाश और अंधकार, दूरी और निकटता आदि बाह्य उपकरण देखने में बहुत परिवर्तन ला देते हैं। यही गति शेष सब इन्द्रियों की है। मन और बुद्धि भी इसी नियम से नियन्त्रित हैं। यथार्थ का दर्शन इन्द्रियों से नहीं, किन्तु माध्यम-निरपेक्ष चेतना से होता है। मेरी अनुभूति के क्षेत्र में वही प्रत्यक्षानुभूति है। वहां परोक्षानुभूति से उत्पन्न मान्यताएं समाप्त हो जाती हैं। काल का प्रतिबन्ध भी टूट जाता है। उस कालातीत स्थिति के संदर्भ में मैं वर्तमान से विमुख और भविष्य के सम्मुख नहीं होता हूं। फिर मैं केवल होता हूं, और जैसा वर्तमान क्षण में होता हूं, वैसा ही भविष्यत् क्षण में होता हूं, और जैसा भविष्यत् क्षण में होता हूं, वैसा ही वर्तमान
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