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________________ मेरा अस्तित्व १७ I त्वचा से उसका स्पर्श-ज्ञान कर लेता हूं। क्योंकि वह स्थूल सत्य है । अणु सूक्ष्म सत्य है। उसे मैं अपनी आंख, जीभ, घ्राण या त्वचा से नहीं देख पाता हूं, किन्तु सूक्ष्म-वीक्षण के सहारे उसे भी देख लेता हूं । अमूर्त सत्य सूक्ष्म होने के साथ-साथ अरूप होते हैं, इसलिए उन्हें किसी सूक्ष्मवीक्षण के माध्यम से नहीं देखा जा सकता । अपने अस्तित्व के साक्षात्कार में यही सबसे बड़ी कठिनाई है कि वह अरूप है। वह अरूप है, इसलिए इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है । वह इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है, इसलिए मेरे ज्ञान की परिधि से बाहर है। यदि मेरा अस्तित्व मुझसे सर्वथा भिन्न होता तो मैं उसे जानने के लिए केवल शब्दों का सहारा लेता । उन लोगों के शब्दों का, जो कहते हैं कि हमने अपने अस्तित्व का साक्षात् किया है। हजारों-हजारों व्यक्ति शब्दों के सहारे अपने अस्तित्व की शाश्वतता स्वीकार करते हैं और अशाश्वत शरीर को उस शाश्वत चित् तत्त्व का परिधान मात्र मानते हैं । मानने के लिए यह मैं भी मान सकता हूं। किन्तु जब साक्षात् जानने के लिए उत्सुक होता हूं तब मानने का सोपान नीचे रह जाता है 1 इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शब्द - ये सब परोक्षानुभूति के माध्यम हैं । जाना प्रत्यक्षानुभूति है। वहां ये सब कृतकार्य नहीं होते। इस परिस्थिति में अपने अस्तित्व की शोध से हताश हो जाता हूं । यदि मेरे अस्तित्व का प्रकाश इन्द्रिय, मन और बुद्धि में प्रवाहित नहीं होता, इनकी संवेदन-शक्ति उससे विच्छिन्न होती तो मैं अपने प्रयत्न में हताश ही हताश होता । किन्तु मेरे अस्तित्व का प्रकाश इन्द्रिय, मन और बुद्धि के माध्यम से बाह्य जगत् में जाता और फिर लौटकर अपने क्षेत्र में आ जाता है। मैं बाह्य-दृष्टि हूं, उसके बाहर जाने की प्रक्रिया से परिचित हूं। मैं अन्तर्दृष्टि नहीं हूं, उसके फिर अंतस में लौट आने की प्रक्रिया से परिचित नहीं हूं। इसीलिए मैं अपने अस्तित्व से अपरिचित रहा हूं। एक दिन मेरे गुरु ने मुझे बताया कि चेतना का प्रवाह जिस मार्ग से बाहर को जाता है, उसे बन्द कर दो। मैंने वैसा किया तो पाया कि मैं अपने अस्तित्व के साक्षात् सम्पर्क में हूं। वहां अब 'मैं हूं' (अहमस्मि) इस आकार में नहीं रहा हूं । किन्तु 'मैं हूं' ( अहमस्ति ) इस आकार में बदल गया हूं यानी मैं अपनी सत्ता से अभिन्न हो गया हूं। अनुभव की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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