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१६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
७. मेरा अस्तित्व
मैं फ्लू से ग्रस्त था, इसलिए सो रहा था। छोटा गांव, छोटा मकान, मुक्त आकाश और मुक्त मन। सामने एक पेड़ था। उजली दुपहरी में सब के सब चमक रहे थे। मैंने एक बार पेड़ की ओर दृष्टि डाली और दूसरी बार आकाश की ओर। विराट आकाश के सामने वह पेड़ बहुत छोटा लग रहा था। छोटा किन्तु अनन्त। आकाश क्षेत्र और काल-दोनों दृष्टियों से अनन्त है, किन्तु काल की दृष्टि से पेड़ भी अनन्त है। उसका एक भी अणु कभी नष्ट होने वाला नहीं है। वह दर्शन के इस शाश्वत नियम से आबद्ध है
“जो आज है, वह अतीत में था और भविष्य में होगा। जो पहले नहीं था और पश्चात् नहीं होगा, वह आज भी नहीं हो सकता।"
_आकाश और पेड़ को अपने अस्तित्व के बारे में न सन्देह है और न निश्चय। फिर भी उनका अस्तित्व अनन्त और अबाध है।
मैंने सोचा, इस विश्व में एक अणु भी ऐसा नहीं है जो आज है और कल नहीं होगा। तो फिर मैं अपने अस्तित्व के बारे में कैसे सन्देह कर सकता हूं? क्या मैं विश्व-व्यवस्था के उस शाश्वत नियम का अपवाद हूं? मैंने फिर सोचा, जब एक अणु भी उसका अपवाद नहीं है तब मैं उसका अपवाद कैसे हो सकता हूं? चिन्तन और आगे बढ़ा तो मैंने सोचा, फिर मनुष्य ही ऐसा अभागा क्यों, जिसे अपने अस्तित्व में सन्देह है ? मैंने देखा, मनुष्य की चेतना पेड़ की चेतना से विकसित है, इसलिए उसे अपने अस्तित्व के बारे में सन्देह होता है और उसकी चेतना योगी की चेतना की भांति विकसित नहीं है, इसलिए वह अपने अस्तित्व की अनन्तता का निश्चय नहीं कर पाता है। इस प्रकार वह सन्देह की पीठ पर चढ़कर भी निश्चय की चोटी तक नहीं पहुंच पाता है।।
इस दुनिया में कुछ सत्य स्थूल हैं, कुछ सूक्ष्म और कुछ अमूर्त । मैं स्थूल सत्यों को स्थूल साधनों और सूक्ष्म सत्यों को सूक्ष्म साधनों से जान जाता हूं, किन्तु अमूर्त(अरूप) सत्यों को जानने का मेरे पास कोई साधन नहीं है। एक आम मेरे सामने है। आंख से उसे मैं देख लेता हूं। जीभ से उसे चख लेता हूं। घ्राण से उसकी गन्ध का अनुभव कर लेता हूं।
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