________________
बौद्धिक स्तर पर उभरते प्रश्न १५
पहुंच जाते हैं। बुद्धि से प्राप्त सचाई वास्तविक सचाई नहीं है और बुद्धि से परे की सचाई वास्तविक है, इसका निर्णय बुद्धि करती है। अब हमारे सामने प्रश्न यह रहता है कि बुद्धि के इस निर्णय को हम वास्तविक माने या अवास्तविक?
मैं जब अपने शरीर की ओर निहारता हूं तो तत्काल मेरे संस्कार बोल उठते हैं, यह पौद्गलिक है, मुझसे भिन्न है। मैं आत्मा हूं, चेतन हूं। यह अनात्मा है, अचेतन है। मैं अविनाशी हूं, अजर-अमर हूं। यह विनश्वर है, जरा-मरणधर्मा है। शरीर और आत्मा को भिन्न देखना ही सम्यग्-दर्शन है। यही विवेकख्याति है और यही मोक्ष का मार्ग है।
जब-जब यह संस्कार जागता है, तब-तब मैं रटता हूं कि शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है। किन्तु दूसरे संस्कार के जागते ही यह भूल जाता हूं कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है। जब कभी चिन्तन की मुद्रा में होता हूं, तब सोचता हूं क्या शरीर से भिन्न कोई
आत्मतत्त्व है? यदि है तो उसका अस्तित्व कहां है? यदि शरीर से बाहर है तो वह अगम्य है। शरीर से बाहर कभी कहीं कोई चेतना ज्ञात नहीं हुई है। यदि वह शरीर के भीतर ही है तो इसकी पुष्टि किससे होती है कि वह शरीर से भिन्न है। चेतन और अचेतन के मध्य ऐसी लक्ष्मणरेखा किसने खींची कि चेतन चेतन ही है और अचेतन अचेतन ही। अचेतन चेतन नहीं हो सकता और चेतन अचेतन नहीं हो सकता, यह केवल तर्कशास्त्र का नियम है, या इससे कुछ अधिक भी है? हमारे तत्त्वविदों ने कहा है-आत्मा रथिक है, शरीर रथ है। रथ के बारे में हमें कोई सन्देह नहीं है। वह सबके सामने है। जितना सन्देह है, वह सब रथिक के बारे में है। जो कहते हैं कि रथिक है, उन्होंने भी नहीं देखा है कि वह है और जो कहते हैं कि रथिक नहीं है, उन्होंने भी नहीं देखा है कि वह नहीं है। जिसने यह प्रश्न खड़ा किया कि आत्मा है, तब उसके प्रतिपक्ष में यह स्वर उठा कि वह नहीं है। बुद्धि की सीमा को अधिकृत करने के लिए आस्तिक और नास्तिक-दोनों सेनाएं आमने-सामने खड़ी हैं। दोनों के पास तर्क के तीखे तीर हैं। देखें, अब क्या होता है?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org