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१४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
६. बौद्धिक स्तर पर उभरते प्रश्न
मैं दर्शन का विद्यार्थी रहा हूं। मैं मानता था कि दर्शनशास्त्र को पढ़े बिना सत्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। मैंने भारतीय दर्शन पढ़े। पश्चिमी दर्शनों का भी थोड़ा-बहुत अध्ययन किया। किन्तु अब मैं देखता हूं तो मुझे लगता है कि उनमें दर्शन नहीं है, कोरा बुद्धिवाद का व्यायाम है। यह सचाई है, मनुष्य का सारा विकास बुद्धि पर अवलम्बित है। विज्ञान ने अकल्पित उन्नति की है। अन्तरिक्ष में यान भेजे हैं। एक यान भूमि से अन्तरिक्ष में उड़ता है और ठीक समय पर अन्तरिक्ष से भूमि पर उतर आता है। क्या यह सचाई नहीं है? विमान-वेधी तो सुदूर अन्तरिक्ष में तैरते हुए विमान को मार गिराती हैं। चालक-विहीन विमान ठीक लक्ष्य पर बम बरसा जाते हैं। कितने उदाहरण उपस्थित करूं! बीसवीं शताब्दी का कोई भी आदमी इस प्रत्यक्ष को आंखें मूंदकर अस्वीकार नहीं कर सकता। फिर भी हमारे दर्शनशास्त्री कहते हैं-जो दृश्य है, वह सत्य नहीं है, सत्य वह है जो अदृश्य है। जो बुद्धिगम्य है, वह सत्य नहीं है, सत्य वह है जो बुद्धि से परे है।
बुद्धि कोई विचित्र नटी है। वह न जाने कितने रूप बदलना जानती है। सारी लीला उसकी है, फिर भी उसने अपने को पर्दे के पीछे रखकर किसी ऐसे ज्ञान की कल्पना की है, जिसका मनुष्य से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। मेरे मन की जिज्ञासा है, जिसने यह कहा कि जहां बुद्धि समाप्त होती है, वहां वास्तविक ज्ञान का आरम्भ होता है, वह आदमी बुद्धिमान् है या बुद्धिशून्य? यदि वह बुद्धिमान है तो उसने जो कहा, वह अपनी बुद्धि से ही कहा है। यदि वह बुद्धिशून्य है तो उसने ऐसा किस आधार पर कहा? यदि उसने सत्य का साक्षात् कर कहा है तो ऐसा वही कह सकता है, जिसने सत्य का साक्षात् किया है। हमें सत्य का साक्षात् नहीं है। हम वह बात किस आधार पर कह सकते हैं? जिसने सत्य को बुद्धि से परे कहा, वह आत्मदर्शी था, उसे सत्य का साक्षात् हुआ था-यह निर्णय हम किससे करते हैं? आत्म-दर्शन हमारे पास नहीं है, जिससे हम इसकी सचाई को साक्षात् देख सकें। हम उसकी सचाई का निर्णय अपनी बुद्धि से करते हैं। इस प्रकार हम घूम-फिरकर बुद्धि के ही साम्राज्य में
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