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________________ सूक्ष्म की समस्या १३ साथ दूसरा व्यक्ति भी मुड़ गया। वह जिधर घूमा, उधर दूसरा भी घूम गया। वह भय से घिर गया। उसके पैर वहीं रुक गए। यदि वह जान पाता तो अपनी छाया से भयाक्रान्त नहीं होता । चिड़िया अपने प्रतिबिम्ब को अपना प्रतिपक्ष मानती है । उसमें अज्ञान का घना अंधकार है। मनुष्य अपनी छाया से डरता है । उसमें मोह का घना अंधकार है । दीवार के उस पार कोई बोल रहा हैं। मैं उसे पहचान लेता हूं । उसमें परोक्षानुभूति का अंधकार है। मानने के नीचे वैसे ही अंधकार होता है, जैसे दीपक के तल में अंधकार। जानना वैसे ही सर्वतः प्रकाशमय होता है, जैसे सूर्य । सूर्य बादलों से घिरा होता है, प्रकाश मंद हो जाता है। ज्ञान आवरण और व्यवधान से घिरा होता है। जानना मानने में बदल जाता है। सूर्य को मैं जानता हूं किन्तु मानता नहीं हूं । सुमेरु को मैं मानता हूं किन्तु जानता नहीं हूं । अस्तित्व के साथ में सीधा सम्पर्क स्थापित करता हूं, वह मेरा जानना है-प्रत्यक्षानुभूति है । अस्तित्व के साथ मैं किसी माध्यम से सम्पर्क स्थापित करता हूं, वह मेरा मानना है - परोक्षानुभूति है । प्रकाश जैसे-जैसे आवृत होता जाता है, वैसे-वैसे मैं जानने से मानने की ओर झुकता जाता हूं । प्रकाश जैसे-जैसे अनावृत होता जाता है, वैसे-वैसे मैं मानने से जानने की ओर बढ़ता जाता हूं । मानने से जानने तक पहुंचना भारतीय दर्शन का ध्येय है, और पहुंच जाना अस्तित्व का प्रत्यक्ष - बोध है । मैं सूर्य को जानता हूं, उससे सूर्य का अस्तित्व नहीं है । बीहड़ जंगलों में विकसित फूल को मैं नहीं जानता, उससे फूल का अनस्तित्व नहीं है । अस्तित्व अपनी गुणात्मक सत्ता है । वह न जानने - मानने से बनती है और न न- जानने-मानने से विघटित होती है । फूल की उपयोगिता मेरे जानने से निष्पन्न होती है और न जानने से विघटित हो जाती है । उपयोगिता मेरा और अस्तित्व का योग है । अस्तित्व दो का योग नहीं है किन्तु वह निरपेक्ष है । 'मैं हूं' - यह निरपेक्ष अस्तित्व है। दूसरे मुझे अनुभव करते हैं, इसलिए मैं नहीं हूं किन्तु मैं हूं, इसलिए मुझे दूसरे अनुभव करते हैं । मैं अपने आप में अपना अनुभव करता हूं, इसीलिए मैं हूं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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