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१२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति ___मैं यदि तर्क-प्रबुद्ध होता तो इस सत्य की उपलब्धि से संतुष्ट हो जाता। किन्तु मैं देखना चाहता था, इसलिए इस उपलब्धि ने मुझे सन्तोष नहीं दिया। मैं दर्शन की भूमिका में पहुंच तर्क के वातवलय से मुक्त हो गया। वहां मुझे दिखा, आकाश असीम है। आकाश असीम है, यह उसका अस्तित्व है और मेरा दर्शन। आकाश ससीम है, यह अस्तित्व और ममत्व का योग है और मेरा शब्द-बोध है। मनुष्य ने जहां अस्तित्व को ममत्व से आबद्ध किया है, वहां असीम सीमा में बंधा है। यह सीमाकरण मनुष्य की कृति है, आकाश का वास्तविक अस्तित्व नहीं है। घट है तब तक घटाकाश है। घट फूटा और घटाकाश विलीन हो गया। उसके साथ-साथ आकाश को ससीम मानने की मेरी बुद्धि भी विलीन हो गई। अब मुझे स्पष्ट दीख रहा है कि आकाश केवल आकाश है और वह सीमायुक्त नहीं है। उसे ससीम मानना ऊर्मि-माला से प्रतिफलित मान्यता है, अस्तित्व का वास्तविक बोध नहीं है। ____ आप पूछ सकते हैं, घटाकाश की मान्यता कैसे है? वह अपना काम कर रहा है-जल को टिकाए हुए है। हम मुक्त आकाश को घट मानें
और उसमें जल डालें तो वह नीचे गिर जाएगा, कहीं टिकेगा नहीं। यह हमारी मान्यता हो सकती है। किन्तु जिसमें जल टिका हुआ है, वह केवल मान्यता नहीं हो सकती।
मैं मान्यता के दो स्तर देख रहा हूं-एक काल्पनिक और दूसरा परिवर्तन से समुत्पन्न। मुक्त आकाश में घटाकाश का समारोपण मान्यता का काल्पनिक स्तर है। घटाकाश का बोध मान्यता का परिवर्तन से समुत्पन्न स्तर है। पहला स्तर वर्तमान आकार में असत् है। दूसरा स्तर वर्तमान आकार में सत् है। किन्तु वास्तविक अस्तित्व की मर्यादा यह है कि आकाश आकाश है और वह असीम है!
मैं देख रहा हूं, एक चिड़िया दर्पण पर चोंच मार रही है। वह वस्तुस्थिति से अनजान है। इसलिए वह अपने प्रतिबिम्ब को अपना प्रतिपक्ष मान रही है, यदि वह वस्तुस्थिति को जान पाती तो अपने प्रतिबिम्ब को अपना प्रतिपक्ष नहीं मानती।
रात का समय है। कोई मनुष्य दौड़ा जा रहा है। उसने देखा, उसके साथ-साथ कोई दूसरा व्यक्ति दौड़ रहा है। वह भयभीत हो मुड़ा। उसके
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