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सूक्ष्म की समस्या ११
मैं प्रकाश में देखता हूं, वह धुंधले में नहीं देख पाता। सूक्ष्मवीक्षण से देखता हूं, वह कोरी आंख से नहीं देख पाता। यह तारतम्य मुझे उस कोटि तक ले जाता है कि मैं अनावृत ज्ञान से देख सकता हूं, वह सूक्ष्मवीक्षण से नहीं देख सकता। ___ जहां तारतम्य है, वहां ‘अन्तिमेत्थ' भी है। वही सत्य की उपलब्धि का अन्तिम साधन है। वही भारतीय दर्शन की भाषा में अतीन्द्रिय ज्ञान है। उसकी भूमिका पर से ही यह कहा जाता है कि सत्य वही नहीं है, जो व्यक्त, स्थूल, अनावृत और निकटस्थ है। जो अव्यक्त, सूक्ष्म, आवृत और दूरस्थ है, वह भी सत्य है। मैं प्रतिभा की खिड़की को खोलकर झांकता हूं, तब मेरे सामने सत्य आकाश की भांति अनन्त और असीम होता है। और जब मैं इन्द्रिय और मन के किवाड़ों से प्रतिभा की खिड़कियों को बन्द कर झांकता हूं, तब मेरे सामने सत्य बन्द कमरे की भांति सान्त और ससीम हो जाता है। उस बन्द कमरे में मैं मान्यता (परोक्षानुभूति) के वातवलय से घिरा होता हूं।
एक दिन मैं अपलक आकाश की ओर निहार रहा था। मेरी तात्त्विक मान्यता की भाषा ने मुझे स्मृति दिलाई, आकाश असीम है। उसी क्षण व्यावहारिक मान्यता की भाषा ने उसका प्रतिवाद किया, आकाश ससीम है। मैं द्विविधा में फंस गया। मेरे सामने प्रश्नचिह्न उभर गया, क्या आकाश असीम है या ससीम? मैं लम्बे समय तक उस प्रश्नचिह्न को पढ़ता रहा। अचानक खतरे का भोंपू बज उठा। विमानवेधी तोपों ने गोलियां दागनी शुरू कर दीं। शांत वातावरण तुमुल में बदल गया। यह सब क्यों हुआ, मैंने सहज ही जिज्ञासा की। मुझे उत्तर मिला, हमारी सीमा में शत्रु के विमान घुस आए हैं। उन्हें ध्वस्त किया जा रहा है।
धरती की सीमा से हमारे पूर्वज परिचित थे। समुद्री सीमा से भी वे परिचित हो गए थे। धरती और समुद्र-दोनों असीम हैं। इसलिए उन्हें सीमा में बांधना उनको स्वाभाविक लगा होगा। आकाश में सीमा की कल्पना उन्होंने नहीं की होगी। इस चिन्तन के अनन्तर ही मेरी दृष्टि न्यायशास्त्र की सीमा में जा अटकी। वहां मुझे घटाकाश, पटाकाश, गृहाकाश जैसे शब्द-विन्यास मिले। अब मैं इस तथ्य को अस्वीकार नहीं कर सका कि आकाश ससीम है।
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