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________________ ऐन्द्रियिक स्तर पर उभरते प्रश्न १६ क्षण में होता हूं, और फिर मैं वर्तमान क्षण के विसर्जन से भविष्यत् क्षण का संवर्धन करने की स्थिति में नहीं होता हूं। किन्तु हर क्षण को अपनी सत्ता के अनुरूप बदलते पाता हूं। और देखता हूं कि मैं हर क्षण के साथ सामंजस्य स्थापित करता हुआ अपने अस्तित्व को गतिशील कर रहा हूं। ८ ऐन्द्रियिक स्तर पर उभरते प्रश्न मैंने बचपन में एक छोटा-सा ग्रंथ पढ़ा। उसका नाम 'तेरह द्वार' है। उसमें एक जगह लिखा है-मनुष्य खाता-पीता है, वह पुद्गल है। पहनता-ओढ़ता है, वह पुद्गल है। देखता-सुनता है, वह पुद्गल है। जितना दृश्य है, वह सारा पुद्गल है। जितना भोग्य है, वह सारा पुद्गल है। जो द्रष्टा है और भोक्ता है, वह आत्मा है। ___ मैंने अध्ययन की भूमिका को जरा विस्तार दिया तो जाना कि आत्मा न खाता है, न पीता है। वह न पहनता है, वह ओढ़ता है। वह न देखता है और न सुनता है। शरीर बेचारा जड़ है। वह क्या खाए-पीएगा? क्या पहने-ओढ़ेगा? और क्या देखे-सुनेगा? आखिर यह है क्या? वह कौन है, जो सारी क्रियाएं करता है? इस जिज्ञासा के समाधान में दर्शनशास्त्री कहते हैं, वह जीवच्छरीर है-न जीव और न शरीर, किन्तु जीव-युक्त शरीर। इतनी जटिल प्रक्रिया को इसलिए मानना पड़ा कि उन्होंने जीव को माना है और एक जीव को माना इसलिए न जाने कितना मानना पड़ा-पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक, ईश्वर, कर्म, बन्ध, मोक्ष आदि-आदि। मनुष्य इन मान्यताओं से इतना घिर गया है कि उसने अपने वर्तमान को भविष्य के हाथ में सौंप दिया है, अपने प्रत्यक्ष को परोक्ष की कारा का बन्दी बना दिया है और अपनी अनुभूति को कल्पना के पंख लगा अनन्त अज्ञात की ओर प्रस्थित कर दिया है। पता नहीं सचाई किसे वरमाला पहनाएगी? बीते युग की बात है। एक सेठ का पुत्र मुनि बनने की धुन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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