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२० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
था। उसका नाम था जम्बूकुमार। उसने पहले दिन आठ कुमारियों के साथ विवाह किया और दूसरे दिन मुनि बनने लगा। रात को आठों पत्नियों के साथ चर्चा हुई। इसी प्रसंग में एक पत्नी ने कहा-'प्रिय! आप प्राप्त सुखों को छोड़कर काल्पनिक सुख की खोज में जा रहे हैं। यह भूल-भरा चरण है। मेरी बात याद रखिए, आगे आपको पछतावा करना होगा। मैं आपको एक कहानी सुनाऊ--
'पुराने जमाने की बात है। मारवाड़ का एक किसान एक बार मेवाड़ जा पहुंचा। उसने गन्ने का रस पिया, गुड़ खाया, चीनी खायी
और चीनी से बनी हुई चीजें खायीं। उसने सोचा-जहां गन्ने होते हैं, वह संसार कितना मधुर होता है? बजरी और गन्ने की कोई तुलना नहीं है। उसने गन्ने का बीज खरीदा और वह अपने गांव चला आया। घरवालों को एकत्र कर अपने मन की बात कही। उन्होंने कहा-यह फसल पकने को है, पहले इसे काट लें, फिर गन्ना बो लेंगे। वह अपनी बात पर अड़ा रहा। सारी सुनी-अनसुनी कर दी। पाकासन्न फसल कट गई। गन्ने की बआई हो गई। पानी कम था। सिंचाई परी हई नहीं। गन्ने की बुआई व्यर्थ! खड़ी फसल को काटने वाले किसान के लिए शेष बचा पछतावा। वैसे ही वर्तमान को छोड़ आगे के लिए दौड़ने वालों के लिए शेष बचता है पछतावा।'
६. सुख की जिज्ञासा
मेरी आंखों के सामने नारियल का एक पेड़ है। एक सीधा-सा तना, कुछ पत्ते और कुछ नारियल। बस, इतना-सा दिखाई दे रहा है नारियल का पेड़। जो दृश्य है वही नारियल का पेड़ है या इसमें कुछ अदृश्य भी है? वह बीज दृश्य नहीं है, जो पेड़ का घटक है। वह शक्ति भी दृश्य नहीं है, जो पेड़ के रूप में अपना अस्तित्व बनाए हुए है और जिसके द्वारा लिया जा रहा है आहार और श्वास।
हमारी इन्द्रियों की सीमा दृश्य जगत् है। वे अदृश्य जगत् का प्रतिपादन नहीं कर सकतीं, क्योंकि वह उन्हें ज्ञात नहीं है। वे उसका निरसन भी नहीं कर सकती क्योंकि अज्ञात का निरसन नहीं किया जा सकता।
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