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________________ सुख की जिज्ञासा २१ दृश्यता और अदृश्यता सापेक्ष है। मैं अब आगे बढ़ गया हूं। वह पेड़ मुझे नहीं दीख रहा है। दीवार का व्यवधान हो गया है। व्यवहित होने पर दृश्य भी इन्द्रियों के लिए अदृश्य बन जाता है। मैं अब समतल भूमि पर चल रहा हूं। फिर भी मुझे वह पेड़ नहीं दीख रहा है, क्योंकि अब मैं उससे बहुत दूर हो गया हूं। बहुत दूरी होने पर दृश्य भी इन्द्रियों के लिए अदृश्य बन जाता है। जो अणु सूक्ष्मवीक्षण से दिखाई देते हैं, वे कोरी आंखों से नहीं दीखते। मैं जो देखता हूं, वह स्थूल सृष्टि है। मैं जिसके द्वारा देखता हूं, वह स्थूल दृष्टि है। सूक्ष्म सत्य को वही दृष्टि पकड़ सकती है जो सूक्ष्म के साथ सम्पर्क स्थापित कर सके और सूक्ष्म पर आए हए स्थूल के आवरण को हटा सके। __मैं चित् को पेड़ की भांति नहीं देख पा रहा हूं क्योंकि वह अमूर्त है। पेड़ मुझसे व्यवहित हो सकता है, दूर हो सकता है, किन्तु चित् मुझसे व्यवहित और दूर नहीं हो सकता, क्योंकि 'मैं' अर्थात् चित् का व्यक्त रूप, चित् और परमाणु का सम्पर्क-सेतु हूं। न चित् को भूख लगती है, न परमाणु को भूख लगती है। भूख मुझे लगती है। न चित् खाता है न परमाणु खाता है। मैं खाता हूं क्योंकि मैं चित् और परमाणु के संधि-स्थल में हूं। न चित् बोलता है और न परमाणु बोलता है। मैं बोलता हूं, क्योंकि मैं चित् और परमाणु के संधि स्थल में हूं। ___यह दृश्य जगत् चित् और परमाणु का संधि-स्थल है। सुख और दुःख इसी में है। ___शुद्ध चित् में न सुख है और न दुःख। वहां केवल अस्तित्व की अनुभूति है। उसे आप चाहें तो आनन्द कहें या न कहें। शुद्ध चित् में न बन्धन है और न मुक्ति। वहां केवल अस्तित्व की अनुभूति है। उसे आप चाहें तो स्वतंत्र कहें या न कहें। संधि-स्थल में अवस्थित चित् सुख-दुःख, बन्धन और परतन्त्रता से बाधित होता है, इसलिए शुद्ध अस्तित्व की उपलब्धि होने पर पूर्वापेक्षा से कहा जाता है-वह आनन्दमय है, मुक्त है, स्वतन्त्र है। वह अपने अस्तित्व के पूर्णोदय में है और असीम, अनन्त तथा अनाबाध आनन्द की अनुभूति में है। इस अनुभूति का धरातल ऐन्द्रियिक अनुभूति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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