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न्याय का विकास २०१
भाव, संचारी भाव आदि सारे भावों से मन का योग होता है। आंखें जड़ हैं, कांच हैं। उसके पीछे जो प्राण है, वह चैतन्य की प्रतिष्ठा है। ____ मन के केन्द्र में देखें, विषमता कितनी है। बाह्य परिस्थिति में विषमता की ओर जितना ध्यान दिया गया उतना यदि आन्तरिक विषमता की ओर दिया जाता तो परिस्थिति भिन्न प्रकार की होती।
__ एक आचार्य ने शिष्य से कहा-सांप को नाप आओ। वह भूमि को चिह्नित कर उसे नाप आया। गुरु ने सोचा-काम नहीं बना। दूसरी बार कहा-सांप के दांत गिन आओ। क्या यह वैषम्य नहीं है? मारने का प्रयत्न नहीं है? शिष्य के मन में विपरीत भावना नहीं हुई, उसने गुरु की कृपा मानी। दांत गिनने का यत्न किया और सांप ने उसे काट लिया। गुरु ने कहा-आ जाओ। शिष्य को सुला दिया और कम्बल
ओढा दिया। पसीना आया, शरीर से कीड़े निकले। रोग मिट गया, शरीर स्वस्थ और सुन्दर हो गया। आपात् दर्शन में यह प्रकार अच्छा नहीं लगता। बाह्य में वैषम्य था पर अन्तर में विराट प्रेम था। अन्तर में प्रेम का प्रवाह हो तो कुछ भी खलता नहीं। अन्तर में प्रेम न हो और बाहर में समता का प्रदर्शन हो तो भी मन को भाता नहीं। इसलिए अन्तर् की समता को विकसित किया जाए। जिनके साथ हार्दिक सम्बन्ध हो जाता है, उनके लिए प्राण देने में भी कष्ट की अनुभूति नहीं होती। ___कानून बाहर से आता है। अध्यात्म अन्तःकरण से निकल बाहर को प्रभावित करता है। समस्या इसलिए उत्पन्न होती है कि अन्तःकरण पर ध्यान नहीं दिया जाता। अन्तःकरण में विषमता का मनोभाव न हो तो खलता नहीं है। कुम्भकार की तरह चोट के पीछे परिवार और जगत के प्रति सुरक्षा का भाव हो तो बाह्य विषमता कभी नहीं खलती।
अन्याय दूसरों के प्रति ही नहीं, अपने प्रति भी होता है। खाने में क्या अपने साथ अन्याय नहीं किया जाता? दांतों और आंतों के साथ अन्याय किया जाता है। चबाकर न खाने से दांतों की शक्ति क्षीण होती है। पायरिया की बीमारी हो जाती है। बिना चबाए लार भीतर नहीं जाती। पचाने से आंतों को कष्ट होता है। कई व्यक्ति चाय और दूध इतना गरम पीते हैं कि कटोरे को संडासी से पकड़ना होता है। जिसका स्पर्श हाथ नहीं कर सकते, उसे आंतें कैसे सह सकेंगी! व्यक्ति जानता
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