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२०२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
है, 'मेरा पेट ठीक नहीं है, मैं नहीं पचा सकता'-फिर भी स्वादवश खा लेता है। परिणाम भोगना पड़ता है। दूसरी इन्द्रियों के साथ भी बहुत बार न्याय नहीं किया जाता।
एकांगी दृष्टिकोण कुछ लोग धर्म की ओर इतने झुकते हैं कि उन्हें धर्म से इधर-उधर कुछ नहीं दिखाई देता। कुछ लोग धन की ओर इतने झुकते हैं कि वे धन के लिए प्राणों की भी परवाह नहीं करते। कुछ लोग काम (सेक्स) की
ओर अधिक झुक जाते हैं। एकांगिता से मानसिक अशान्ति उत्पन्न होती है। प्राचीन समाजशास्त्रियों ने इस विषय पर मन्थन कर एक निष्कर्ष निकाला था कि धर्म, अर्थ और काम का परस्पर विरोध भाव से सेवन करना चाहिए। ___ एक व्यक्ति गृहस्थ की भूमिका में रहना चाहता है, बच्चे और परिवार को रखना चाहता है और अपने दायित्व से हटना भी चाहता है। यह मतिभ्रम है। एक व्यक्ति ने आचार्यश्री ने पूछा- 'गाय को घास डालने में क्या होता है? आचार्यश्री से उत्तर दिया-'गाय को रखने में क्या होता है? जो गाय को रखने में होता है, वही उसको योस डालने में होता है।' जो व्यक्ति गाय को रखे, दूध पीये और घास डालते समय सोचे कि इसमें क्या होगा, यह व्यामोह जैसा है, स्वार्थवृत्ति होती है तब घास डालने में पाप का प्रश्न उठता है। दूध लेने में वह (पाप) आगे उपास्थत नहीं होता। आचार्य भिक्षु ने स्वार्थवृत्ति को उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया। 'चार व्यक्तियों को एक गाय दक्षिणा में मिली। चारों ने समाझौता कर एक-एक दिन दोहना स्वीकार किया। पहले ने घास नहीं डाली। सोचा-'दूसरे दिन वाला डाल देगा।' दूसरे ने सोचा- 'पहले वाले ने घास डाली ही है, तीसरे दिन वाला फिर डाल देगा। एक दिन मैं क्या होगा? सभी ने ऐसा हीं सोचा। दूध तो सभी ने लिया, पर घास किसी ने नहीं डाली। परिणामतः गाय मर गई।
परिवार से काम लेना और दायित्व से जी चुराना न्याय नहीं है। इसी प्रकार धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों में से एक का अधिक सेवन करना न्याय नहीं है। इसीलिए आचार्य सोमदेव ने लिखा है
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