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१३२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
भगवान् को रहने दो, व्यक्ति के लिए अपूर्णता ही अच्छी है। यदि अपूर्णता नहीं होती तो समुदाय नहीं बनता। पण्डाल एक खंभे से खड़ा हो जाता तो इतने खंभों की आवश्यकता नहीं होती। यदि मनुष्य एक पैर से चलता तो दूसरे पैर की आवश्यकता नहीं होती। दूसरे की आवश्यकता है, यही सापेक्षता है। अपूर्णता के साथ सापेक्षता जुड़ी हुई है। आश्चर्य है कि व्यक्ति अपूर्ण होते हुए भी निरपेक्ष भाव से सोचता है। अपनी कोठी दस लाख की बनाता है। कोठी के बाहर पड़ोस में गन्दी नाली बहती है, उसकी उसे चिन्ता नहीं है। क्या वह उसकी गन्दी हवा से बच सकता है?
___ आजकल कोठी में रहने वाले बन्द खिड़की में रहते हैं, क्योंकि प्रकाश बिजली से और हवा पंखे से मिल जाती है। वे जनता के साथ सम्पर्क नहीं रखते। आज व्यक्ति इतना व्यक्तिवादी बन गया है कि वह सम्पर्क-सूत्र को काट रहा है। किन्तु जो प्रकृति से अपूर्ण है, वह जगत् से सम्पर्क विच्छिन्न कर क्या जी सकता है? ६. सम्पर्क सूत्र हमारी चेतना के दो रूप हैं-व्यक्त चेतना और अव्यक्त चेतना। मनोविज्ञान मन को तीन भागों में विभक्त करता है-अवचेतन मन, अर्धचेतन मन और चेतन मन। अव्यक्त चेतना जगमगाता सौरपिण्ड है, प्रकाशराशि है।
कल मैंने देखा, नदी का पूर आ रहा था। पास में नाले थे। नालों में पानी उतना ही था जितना कि अवकाश था। पानी के प्रवाह और बिजली के प्रवाह की समान गति है। हमारे पास चेतना को व्यक्त करने के छह साधन हैं-पांच इन्द्रियां और एक मन। ये छह सम्पर्क-सूत्र हैं। ये बाह्य जगत् से सम्पर्क कराने में पटु हैं। मैं देखता हूं तो सारा जगत् मेरे लिए दृश्य बन जाता है। मैं बोलता हूं तो मैं वक्ता और आप श्रोता बन जाते हैं। इनके माध्यम से बाह्य जगत् के साथ मेरे अन्तर मन का सम्बन्ध जुड़ता है।
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