SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्म-बिन्दु १३१ वही देखता है। यह ऋजुदशा है। इसमें देखना और करना अलग-अलग नहीं होते। ४. व्यक्तिवाद सूर्य! तुम मुझे प्रिय नहीं हो। ___ तुम प्रकाशात्मा हो। सारा भूमण्डल तुम्हारे प्रकाश से प्रकाशित हो उठता है। अंधकार विलीन हो जाता है। ___ तुम जागृतात्मा हो। तुम्हारे आने पर सोए आदमी जाग उठते हैं। नींद विलीन हो जाती है। . तुम अभयात्मा हो। तुम्हारे आने पर घरों के द्वार खुल जाते हैं। भय विलीन हो जाता है। तुम गति के प्रेरक हो। तुम्हारे आने पर आकाश पक्षियों से भर जाता है और पथ मनुष्यों से। निष्क्रियता सक्रियता में बदल जाती है। फिर भी तुम मुझे प्रिय नहीं हो और इसलिए नहीं हो कि तुम सारे ग्रहों पर आवरण डाल अकेले चमकना चाहते हो। समूचे समाज पर आवरण डालने वाला क्या कोई प्रिय हो सकता है? । सूर्य अकेला चमकना चाहता है, शायद वह क्रूर हो। कोई भी व्यक्ति क्रूर हुए बिना समाज का सर्वस्व अकेला बटोरना नहीं चाहता। इसलिए व्यक्ति में अहिंसा और अपरिग्रह का अनुबन्ध है। जिस व्यक्ति में अहिंसा का भाव नहीं होता-समानता का मनोभाव नहीं होता, वह संग्रह से विमुख नहीं हो सकता। संग्रह की प्रेरणा हिंसा है, विषमता है। ५. अपूर्णता का आनन्द यदि व्यक्ति पूर्ण हो जाए तो फिर पुरुषार्थ के लिए अवकाश कहां रहेगा? आग के लिए ईंधन आवश्यक है। यदि मनुष्य को भूख न लगे तो वह निकम्मा होकर पड़ा रहेगा। उसे भूख लगती है, इसलिए वह जागता है। मजदूर काम पर जाने के लिए जल्दी उठता है। अध्यापक पढ़ाने के लिए कॉलेज जाने की जल्दी में है। किसान सुबह खेत में जाता है। यदि व्यक्ति पूर्ण हो जाए तो सब निठल्ले हो जाएंगे। पुरुषार्थ का आधार है अपूर्णता। आनन्द अपूर्ण रहने में ही है, पूर्णता में नहीं। पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy