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________________ १३० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति नहीं जलती किन्तु दीप प्रकाश कर रहा है। जिसमें सत्य को खोजने के वृत्ति नहीं है किन्तु वह धार्मिक है, इसका अर्थ हुआ कि मार्ग मिला ही नहीं किन्तु नगर मिल गया। जिसमें सत्य का आचरण नहीं है किन्तु वह धार्मिक है, इसका अर्थ हुआ कि पानी पिया ही नहीं किन्तु प्यास बुझ गई। २. दर्शन हम देखें और सोचें। जब हम देखते हैं तब सोच नहीं पाते और जब हम सोचते हैं तब देख नहीं पाते। जब हम निर्विचार होते हैं तब देखने की स्थिति में चले जाते हैं और जब हम देखते हैं तब अपने आप निर्विचार हो जाते हैं। विचार-संयम का स्वाभाविक सूत्र है-देखना। देखने में भाषा नहीं होती। सोचने में भाषा होती है। अभाषा. एक होगी, भाषा भिन्न होगी। गहरे निरीक्षण से एकाग्रता सहज ही सध जाती है। हम दूर को देखें या निकट को, शरीर के भीतर देखें या बाहरी वस्तु को, वह सब होगा वर्तमान। अतीत को नहीं देखा जा सकता और भविष्य को भी नहीं देखा जा सकता। ३. दृष्टि और कृति . ___ आज समूचा विश्व समस्याओं से ग्रस्त है। लगता है एक नाटक खेला जा रहा है। उसमें द्रष्टा नीचे दब गया है और दृश्य ऊपर आ गया है। यह सुषुप्ति की दशा है। मनुष्य जिस दिन जाग उठेगा, समस्या की गांठ खुल जाएगी। दृश्य का अस्तित्व सनातन है। उसका लोप नहीं होगा। उसके विलोप का प्रयत्न नहीं करना है। हमें जो करना है वह केवल द्रष्टा और दृश्य के सम्बन्ध का परिष्कार है। दृश्य की अनुभूति में द्रष्टा अपने अस्तित्व को विस्मृत कर देता है, यह अस्वाभाविक सम्बन्ध है। यही समस्याओं का मूल है। द्रष्टा की स्वानुभूति से दृश्य की अनुभूति संपृक्त होती है, यह सम्बन्ध की संगति है। द्रष्टा और दृश्य की विसम्बन्ध-दशा में मनुष्य जो देखता है वह करता नहीं है और जो करता है वह देखता नहीं है। वह मायावी दशा है। उसमें देखना और करना अलग-अलग हो जाते हैं। द्रष्टा और दृश्य की सुसम्बन्ध-दशा में मनुष्य जो देखता है, वही करता है और जो करता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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