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________________ अपानवायु और मनः शुद्धि १५१ है । साधु के लिए विधान है कि वह गोचरी से आने के बाद भोजन से पूर्व क्षण भर विश्राम करे - वीसमेज्ज खणं मुणी' । तेज चलकर आने से धातुएं विषम बन जाती हैं । उस समय खाया हुआ अमृत भी जहर बन जाता है। पं. लालन ने आचार्यश्री से कहा- “साधुओं के बीमार होने का एक कारण उनकी गोचरी है । गोचरी से आते ही जो आहार करते हैं, वे बीमारी को निमंत्रण देते हैं । कठोर परिश्रम के बाद तत्काल खाने और पीने से रोग पैदा हो जाते हैं। धातुओं को सम करने के लिए दस-पन्द्रह मिनट तक विश्राम करना चाहिए ।" मन की उच्चावच अवस्था में भी नहीं खाना चाहिए । क्रोध, काम-वासना, लोभ आदि मानसिक भावों में किया गया भोजन विष रूप में बदल जाता है । विषमता आध्यात्मिक दोष ही नहीं है किन्तु शारीरिक और मानसिक दोष भी है । समता आध्यात्मिक गुण ही नहीं अपितु शारीरिक और मानसिक गुण भी है । प्राण और अपान की विषमता यानी शरीर और मन की अस्वस्थता । प्राण और अपान की समता यानी शरीर और मन की स्वस्थता | मनः शुद्धि मन क्या है? जो चेतना बाहर जाती है, उसका प्रवाहात्मक अस्तित्व ही मन है। शरीर का अस्तित्व जैसे निरन्तर है वैसे भाषा और मन का अस्तित्व निरन्तर नहीं है, किन्तु प्रवाहात्मक है । 'भाष्यमाणा' भाषा होती है । भाषण से पहले भी भाषा नहीं होती और भाषण के बाद भी भाषा नहीं होती । भाषा केवल भाषणकाल में होती है- 'भासिज्जमाणी भासा' । इसी प्रकार 'मन्यमान' मन होता है । मनन से पहले भी मन नहीं होता और मनन के बाद भी मन नहीं होता । मन केवल मनन काल में होता है - 'मणिज्जमाणे मणे' । मन एक क्षण में एक होता है- 'एगे मणं तंसि तंसि समयंसि' । मन का इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध होता है । इन्द्रियों के स्पर्श आदि पांच विषय हैं । इन विषयों में सारी वस्तुएं समाविष्ट हैं । इन्द्रियों द्वारा हम हर वस्तु को और उसके स्थूल रूपों को पकड़ते हैं । शीत और उष्ण के स्पर्श से वस्तु का ज्ञान होता है । आम के रस के स्वाद से हम आम को पहचान लेते हैं । रस ही आम नहीं है । उसमें रूप भी है, पर हम इसके द्वारा उसको पहचान लेते हैं। गंध के द्वारा भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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