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अपानवायु और मनःशुद्धि १५३ समता तो पुरुषार्थ की प्रतीक है। बाह्य-निवृत्ति का अर्थ है-अन्तःप्रवृत्ति। क्योंकि जो भी अस्तित्व-धर्मा पदार्थ है, उसमें क्रियाकारित्व अवश्य है। न्यायशास्त्र में सत् की परिभाषा है- 'अर्थक्रियाकारित्वं हि सत्'। अतः बिना क्रिया के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं हो सकती। जैन-दर्शन में पदार्थ को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक माना गया है। उत्पत्ति, विनाश और ध्रुवता उसके अवश्यंभावी गुण हैं। अतः अर्थ-क्रिया के बिना पदार्थ रह ही नहीं सकता। जिसमें ये तीनों नहीं हैं, वह अपदार्थ है, जैसे आकाश-कुसुम। अतः आत्मा यदि अस्तित्वधर्मा पदार्थ है तो वह क्रिया-शून्य हो ही नहीं सकता।
वास्तव में धर्म स्वीकृत नहीं अपितु आत्मा का सहज गुण है, यह उद्भूत है। जो इस स्वरूप को समझ लेता है, वह तीनों ही लोकों का स्वामी बन जाता है।
सामान्यतः हम लोग समझते हैं कि मन चंचल है। उसमें विक्षेप होता है। उससे अशुद्धि भर जाती है। पर विक्षेप वहां होता है, जहां इन्द्रिय, मन और पवन की विषमता होती है। इनकी समता होने पर विक्षेप अपने आप समाप्त हो जाता है। समता की स्थापना का माध्यम है-समताल श्वास। जितनी मात्रा में एक श्वास लिया, उतनी मात्रा में दूसरा, तीसरा श्वास लिया। यह समताल श्वास है। समस्वर और समलय में तन्मयता के साथ शक्ति भी विकसित होती है।
मनःशुद्धि का एक प्रकार नाड़ी-संस्थान के दर्शन का भी है। लेटकर दाहिने पैर के अंगूठे पर ध्यान केन्द्रित करने से मन शान्त हो जाता है। वस्तुतः स्नायविक रचना बड़ी दुर्गम है। जो व्यक्ति इसे पहचान लेता है, वह बहुत बड़े-बड़े काम कर सकता है। मैं कुछ ऐसे व्यक्तियों को भी जानता हूं, जिनके पास कोई विशेषज्ञता नहीं है पर उन्हें कोई स्नायु-रहस्य प्राप्त हो गया और वे मामूली झटके से ही भयंकर पेट-दर्द आदि रोगों की चिकित्सा कर देते हैं।
आकाश-दर्शन से भी ध्यान केन्द्रित होने में सहयोग मिलता है। क्योंकि आकाश अनन्त है। अनन्त का दर्शन स्वभावतः ही हमें अपनी आत्म-अनन्तता का बोध कराता है और हम अपने आप में खो जाते हैं। इसीलिए कई योगी केवल आकाश-दर्शन की पद्धति से भी ध्यान करते हैं।
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