SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मन की चंचलता का प्रश्न २३ है, इसलिए वह स्पष्ट और सहज प्रतीत होता है । अतीन्द्रिय सुख अन्तर्दर्शन से सम्बन्धित है, इसलिए वह सहज होने पर भी असहज - सा प्रतीत होता है । सहज को असहज और असहज को सहज मानने की दृष्टि बदलने पर सुख की कल्पना बदल जाती है । १०. मन की चंचलता का प्रश्न जिसका मन शिक्षित नहीं है, वह धार्मिक भी नहीं है । धार्मिक वही है, जिसका मन शिक्षित है । मन शिक्षित नहीं है और वह धार्मिक है, यह विरोधाभास या आत्मभ्रान्ति है । धर्म के विद्यालय का पहला पाठ है-मन को शिक्षित करना । यह सरल होते हुए भी कठिन हो रहा है । माला फेरते - फेरते मनके घिस गए हैं और अंगुलियां भी घिस गई हैं, फिर भी यह प्रश्न समाहित नहीं हुआ कि मन स्थिर कैसे हो? जो प्रश्न पचास वर्ष पहले था, आज भी वह उसी रूप में खड़ा है। प्रक्रिया की ओर ध्यान न देने पर आज भी यह प्रश्न समाहित नहीं होगा । धर्म की पहली सीढ़ी हैं- मन पर विजय पाना । केशी ने गौतम से पूछा - 'शत्रुओं को आपने कैसे जीता? अपने आपको आपने कैसे जीता? उत्तर में गौतम ने कहा 'एगे जिया जिया पंच, दसहा उ जिणित्ताणं, पंच जिए जिया दस । सव्वसत्तू जिणामहं ॥' 'एक मन को जीता और चार कषायों पर विजय पा ली। इन पांच को जीतने से पांच इन्द्रियां भी विजित हो गईं। इस प्रक्रिया से सारे शत्रुओं पर मैंने विजय पा ली अर्थात् अपने आप पर विजय पा ली ।' जो मन को जीतना नहीं जानता, वह कषायों और इन्द्रियों पर विजय नहीं पा सकता। जो कषायों और इन्द्रियों को नहीं जीतता वह धार्मिक भी नहीं हो सकता, क्रियाकाण्डी हो सकता है । मन क्या है और उसकी चंचलता क्या है ? इस पर ध्यान दें। बच्चा रोता है, तब मां हौआ का भय दिखाती है । बच्चा चुप हो जाता है 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy