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७४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
के लिए अवकाश ही नहीं होता। धर्म की प्रक्रिया विचार और आचार की दूरी को कम करने की है। धर्म का विचार-स्रोत अन्तर्जगत् से फूटा है। बहिर्जगत की अपवित्रता का प्रक्षालन कर पुनः वह अन्तर्जगत् की ओर प्रवाहित हो जाता है। अन्तर्जगत् अस्वीकार का जगत है। जागतिक विचार स्वीकार का विचार है। विचार और आचार की दूरी मिटाने का अर्थ है स्वीकार से अस्वीकार की ओर अथवा संग्रह से असंग्रह की ओर प्रयाण। इस पद्धति का पहला अंग है दुःख की मुमुक्षा, दूसरा है पदार्थ और उसके उपभोग के प्रति अनासक्ति, तीसरा है पदार्थ और उसके उपभोग का संयम। धार्मिक जगत् में दुःख की मुमुक्षा है, पर जिस (अनासक्ति और संयम) से दुःख की मुक्ति होती है, उसका समाचरण नहीं है। इसीलिए धर्म फल नहीं ला रहा है। उससे दुःख कट नहीं रहे हैं। दुःख के कारण आसक्ति और असंयम हैं। कारण को समाप्त किए बिना कार्य की समाप्ति नहीं हो सकती। इसलिए धर्माचरण की पद्धति में अनासक्ति और संयम के अभ्यास की मुख्यता अनिवार्य है।
४. धर्म एक आनुवंशिक गुण बन गया है। फलतः धार्मिक को धर्म स्वतन्त्र विवेक से प्राप्त नहीं है, किन्तु वंशानुक्रम से प्राप्त है। पुराने युग में वैश्य का लड़का वैश्य का धंधा करता था और क्षत्रिय का लड़का क्षत्रिय का धंधा करता था। वैसे ही धार्मिक उसी धर्म का अनुपालन करता है, जो उसके पिता द्वारा अनुपालित है। व्यवसाय की परम्परा अब बदल चुकी है। व्यापारी का पुत्र आज डॉक्टर बन जाता है, इंजीनियर बन जाता है,
और भी अपनी रुचि के अनुकूल व्यवसाय चुन लेता है। धार्मिक को इतनी स्वतंत्रता नहीं है या अपनी स्वतंत्रता का वह इस क्षेत्र में उपयोग नहीं कर रहा है। मैं इस पक्ष की स्थापना नहीं कर रहा हूं कि धार्मिक वही हो सकता है, जो अपने पैतृक धर्म का परिवर्तन करता है। किन्तु इस पक्ष की स्थापना मुझे अवश्य प्रिय है कि धार्मिक व्यक्ति अपने पैतृक धर्म को विवेक और अनुभूति की कसौटी से कसकर ही उसे स्वीकृति दे।
धर्म, धर्म के प्रतिपादक, धर्म की पद्धति और धार्मिक-इन चारों तत्त्वों में पूर्वापेक्षित तथा देश-कालानुरूप परिवर्तन और धर्म के निर्मल जल में मिले हुए कीचड़ का शुद्धीकरण करना ही धर्मक्रान्ति है। उसके होने पर ही धर्म अपने दुःखमुक्ति के आश्वासन को पूर्ण कर सकता है।
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