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दुःख-मुक्ति का आश्वासन ७३
(३) यदि वह पद्धति में है तो उसे बदलना होगा।
(४) यदि वह लेने वाले में है तो उसकी प्रकृति का परिष्कार करना होगा।
१. धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप में कोई न्यूनता दिखाई नहीं देती। उसका उपासनात्मक स्वरूप एकांगी होने के कारण क्षत-विक्षत हो गया है। नाम-जप चित्त की एकाग्रता का हेतु बन सकता है। शास्त्र-श्रवण चित्त की एकाग्रता का हेतु बन सकता है। उपासना के अन्यान्य पक्ष भी चित्त की एकाग्रता के हेतु बन सकते हैं। किन्तु जो मानस एकता की अनुभूति (अहिंसा) से अनुस्यूत नहीं है, क्या वह एकाग्र हो सकेगा? जिस मानस में सत्य प्रतिष्ठित नहीं है, क्या वह एकाग्र हो सकेगा? जो मानस पर-सत्त्व के अपहरण से विरत नहीं है, क्या वह एकान हो सकेगा? जो मानस सहज आनन्द (ब्रह्मचय) से परितृप्त नहीं है, क्या वह एकाग्र हो सकेगा? जो मानस इच्छा की प्रताड़ना से परिमुक्त नहीं है, क्या वह एकाग्र हो सकेगा? वही मानस एकाग्र हो सकता है, जिसमें व्रत की प्रतिष्ठा है। धर्म की वार्तमानिक विकलांगता यह है कि उसका निमित्त-पक्ष उपादान-पक्ष से प्रबल हो गया है। उसकी चिकित्सा निमित्त-पक्ष को दूसरा और उपादान-पक्ष को पहला स्थान देकर ही की जा सकती है।
२. धर्म के अधिकांश पथ-दर्शक सत्य के प्रति उतने आस्थावान् नहीं हैं, जितने अपने सम्प्रदाय के प्रति हैं। इसीलिए धर्म का प्रतिपादन सत्य की शोध के रूप में कम होता है, परम्परा की पुष्टि के रूप में अधिक होता है। एक सामाजिक व्यक्ति अपनी अपूर्णता को स्वीकार कर सकता है किन्तु एक धर्मगुरु के लिए ऐसा करना कठिन है। एक सामाजिक विद्वान् नये सत्य का उद्घाटन होने पर अपने प्राचीन अभिमत को बदल सकता है किन्तु एक धर्मगुरु ऐसा करने से झिझकता है। धर्मप्रतिपादक की वर्तमान कठिनाई यह है कि वह परोक्षानुभूति के प्रामाण्य से अतिमात्र प्रभावित है। उसमें यह परिवर्तन अपेक्षणीय है कि वह आत्मानुभूति की आंच में पका हुआ भोजन ही जनता को परोसे।
३. खंभों में दूरी न हो तो घर का विस्तार नहीं हो सकता। किन्तु इतनी दूरी नहीं होनी चाहिए कि जिससे उन पर छप्पर डाला ही नहीं जा सके। विचार और आचार में दूरी स्वाभाविक है। यदि वह न हो तो साधना
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