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१८० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
निकाल कैसे पाएंगे? पिता-पुत्र का सम्बन्ध है। पिता पुत्र की चिन्ता करता है, अपेक्षा के साथ निर्वाह करता है, तो व्यवहार माधुर्यपूर्ण होता है। यदि वह एकत्व की भावना से सोचे-'अकेला ही व्यक्ति आया है, अपने ही पुण्य-पाप साथ चलते हैं, कौन किसका साथी है'-और परिवार में रहता हुआ भी निरपेक्ष व्यवहार करे तो वह व्यवहार पुत्र के मन में पिता के प्रति शत्रु-भाव पैदा करता है। राजा उद्रायण के मन में आया, पुत्र को राज्य नहीं देना चाहिए, क्योंकि राजा नरकगामी होता है। पुत्र को क्यों नरक में ढकेला जाए? इसलिए उसने अपना राज्य पुत्र को न देकर भानजे को दिया। परिणाम यह आया कि पिता के प्रति पुत्र का द्वेष हो गया और वह अन्तिम समय तक बना रहा।
उसने कहा-सबसे क्षमा याचना कर सकता हूं, पर पिता से नहीं।
भानजे के मन में आया-मामा कहीं वापस आकर राज्य न ले ले, इसलिए उसने उद्रायण को मार डालने का प्रयत्न किया। व्यवहार का लोप करने से यह परिणाम आया। ___ जैनेन्द्र-क्या निश्चय और व्यवहार-ये दो बातें मन में रखनी पड़ेंगी? निश्चय में से व्यवहार नहीं निकल सकता क्या? व्यवहार स्वयं निश्चय की साधना में फलित होगा। निश्चय को साधेगे तो अनुराग, विराग नहीं होगा। व्यवहार की ओर झुके तो निश्चय टूटेगा, निश्चय पर झुके तो व्यवहार टूटेगा। निश्चय का पूरी ईमानदारी से पालन करेंगे तो व्यवहार स्वयं सधेगा।
मुनिश्री-तीर्थंकर सारे व्यवहार का प्रवर्तन करते हैं, संघ का प्रवर्तन करते हैं, व्यवस्था का प्रवर्तन करते हैं। यह व्यवहार कहां से आया? प्रवृत्ति उनके जीवन में कहां से आयी? निश्चय में से ही व्यवहार निकला है। तीर्थंकर कृतकृत्य हो गए, उनके लिए करना कुछ प्राप्त नहीं, फिर भी वे करते हैं। कोई भी शरीरधारी व्यवहार से मुक्त नहीं हो सकता। जब तक शरीर का पराक्रम है तब तक व्यवहार होता रहेगा। श्रावक के बारह व्रतों में एक अतिचार है कि 'अपने आश्रितों की जीविका का विच्छेद नहीं करूंगा।' यह व्यवहार कहां से आया? जो जितना धार्मिक होगा, उसका व्यवहार भी उतना ही सुखद होगा।
जैनेन्द्र-व्यवहार में जितनी त्रुटि हो उतनी ही धार्मिकता की कमी होगी।
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