________________
सत्-व्यवहार १८१
मुनिश्री-रूपचन्द्रजी सेठिया धर्मनिष्ठ श्रावक थे। वे जितने धर्मनिष्ठ थे, उतने ही व्यवहार के प्रति सजग थे।
चन्दन-क्या व्यवहार मोह नहीं है?
मुनिश्री-आप व्यवहार में केवल मोह ही क्यों देखते हैं, उसके साथ जुड़े हुए न्याय या समभाव को क्यों नहीं देखते? कल्पना कीजिए-एक पिता के चार लड़के हैं। एक के प्रति अधिक स्नेह है। उसे दो लाख रुपये देता है। दूसरे को एक लाख, तीसरे और चौथे को आधा-आधा लाख। परिणाम होगा कि परस्पर झगड़े होंगे। पिता अपने को धार्मिक भले माने पर पुत्र उसे अधार्मिक और अव्यावहारिक मानेंगे। यदि व्यवहार धर्म से प्रभावित होता तो सबके प्रति समान वृत्ति होती। तीन के प्रति अन्याय नहीं होता।
चन्दन-अन्याय न हो, यह ठीक है। पर एक-दूसरे के प्रति जो भावना होती है, वह क्या हमारे पूर्व-कर्म का परिणाम नहीं है?
मुनिश्री-हमारी मान्यता और नीति भी तो हो सकती है?
जैनेन्द्र-पर मैं मानता हूं कि इसकी जिम्मेदारी सामने वाले व्यक्ति पर भी होती है।
मुनिश्री-वीतराग के प्रति भी किसी का असन्तोष हो सकता है।
जैनेन्द्र-बल्कि तीव्र असन्तोष होता है। हमें कोई मारने नहीं आता पर गांधीजी को मार दिया। ईसा प्रेम की मूर्ति थे पर उन्हें फांसी मिली।
मुनिश्री-वैषम्य अपनी मनोवृत्ति के कारण उपजता है।
जैनेन्द्र-जिन्होंने फांसी लगाई ईसा को, ईसा के मन में भी उनके प्रति प्रेम था। यह ईसा का गुण था। जगत् के संचालन में धर्म की आराधना करने वाला बाहर देखे, मेरे कारण क्या हो रहा है तो वह कुछ नहीं कर सकता।
मुनिश्री-सावधानी यह बरतनी है कि अपनी द्वेषात्मक प्रवृत्ति से तो कुछ नहीं हो रहा है। घर का दायित्व ले रखा है और उस स्थिति का लोप करना है तो विषमता पैदा होती है। उस स्थिति में होना और उसका लोप करना-इन दोनों में कोई मेल नहीं है। कोई दायित्व न ले तो कोई कठिनाई नहीं। दायित्व ओढ़ ले और फिर न निभाए तो कठिनाई पैदा होती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org