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५६ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति
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सामाजिक है । साधना की दृष्टि से वह व्यक्तिनिष्ठ है किन्तु परिणाम की दृष्टि से वह सामाजिक है । धर्म व्यक्ति को लाभान्वित करने के साथ-साथ समाज को भी लाभान्वित करता है। व्यक्तिगत व्यवहार में धर्म की अपेक्षा रखने वाले और सामाजिक व्यवहार में धर्म की उपेक्षा करने वाले लोग जाने-अनजाने ऐसा चाहते हैं कि उनकी उपासना का परिणाम उन्हें मिले और उनकी अप्रामाणिकता का परिणाम समूचे समाज को मिले | यह कितना हास्यास्पद है ! धर्म की भूमिका यह होनी चाहिए कि अपनी बुराई को व्यक्ति स्वयं में समेटे और अपनी अच्छाई को समाज में फैलाए । व्यक्ति की उपासना से समाज का सीधा सम्बन्ध नहीं होता । उसका सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के आचरण से होता है । जिसके जीवन में धर्म है, उसके जीवन से असदाचार का प्रवाह नहीं निकल सकता । जल की धारा से अग्नि का स्फुलिंग नहीं उछल सकता। एक धार्मिक के जीवन से असदाचार का प्रवाह फूटे तो क्या उससे दूसरे लोगों में धर्म की आस्था का अंकुर फूटेगा ?
चिन्तन की इस पृष्ठभूमि पर आप धर्म का मूल्य आंकें । आज यदि धर्म के अस्तित्व को बनाए रखना है, उसे आकर्षण का केन्द्र बनाना है तो यह प्रमाणित करना होगा कि धार्मिक का जीवन बुराइयों को आमंत्रण नहीं दे रहा है। किन्तु उनसे निरन्तर जूझ रहा है।
हम व्यक्तिगत उपासना को दूसरा स्थान दें और आचार-व्यवहार को पहला । आचार-व्यवहार को दूसरा और उपासना को पहला स्थान देने पर धर्म का प्रवाह उल्टा बहने लग जाता है । मैं उपासना का खण्डन नहीं कर रहा हूं। मैं उसके स्थान की सही समझ प्रस्तुत कर रहा हूं । महाकवि कालिदास के शब्दों में पूज्य की पूजा का व्यक्तिक्रम नहीं होना चाहिए, इसकी सूचना दे रहा हूं ।
कोरी उपासना धर्म का छिछला प्रयत्न है । आध्यात्मिकता और नैतिकता के साथ सम्बद्ध उपासना में धार्मिक प्रयत्न की गहराई आ जाती है । एक आदमी कुआं खोदने लगा । पानी पचास हाथ की गहराई में था । उसने एक जगह पांच हाथ का गढ़ा खोदा । पानी नहीं निकला, फिर दूसरा गढ़ा खोदा, वहां भी नहीं पानी नहीं निकला फिर तीसरा खोदा | इस प्रकार उसने दस गढ़े खोद डाले, पर पानी नहीं निकला ।
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