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________________ धर्म की आत्मा एकत्व या समत्व ५७ तब निराश होकर बैठ गया । धर्म का छिछला प्रयत्न भी निराशा पैदा करता है । यदि वह एक जगह ही पचास हाथ का गढ़ा खोद लेता तो पानी निकल आता । उपासना और आचार की संयुक्त गहराई के बिना आनन्द का स्रोत नहीं निकलता । योगेन्द्ररस के साथ स्वर्ण न हो तो वह निकम्मा है । उपासना के साथ आचार-शुद्धि न हो तो उसकी उपयोगिता कम हो जाती है 1 आज एक वैसे धर्म का उदय अपेक्षित है, जो संदर्भ तथा विशेषणहीन हो । आकाश की भांति उसकी शरण में सब हों पर वह किसी का भी न हो । मेरी समझ में किसी का नहीं होना ही धर्म का होना है । ३. धर्म की आत्मा : एकत्व या समत्व मैं देखता हूं, एक ओर हमारे सामने विराट् विश्व है और दूसरी ओर बहुत छोटा-सा व्यक्ति । आज का बहुत सारा चिन्तन विराट् की ओर जा रहा है, सामुदायिकता की परिक्रमा कर रहा है । जो भी सोचा जाता है, वह व्यापक स्तर पर सोचा जाता है । परन्तु ऐसा होने पर भी समस्या कम नहीं हुई है। मैं देखता हूं कि जितनी समस्याएं विराट् - विश्व की हैं, उतनी ही एक व्यक्ति की हैं। जो पिण्ड में है, वह ब्रह्माण्ड में है और जो ब्रह्माण्ड में है, वह पिण्ड में है । इसकी सचाई में सन्देह करने का कोई कारण मुझे नहीं लगता । हम कोरी सामुदायिक चिन्ता या कोरी व्यक्तिचिन्ता कर एकांगी हो जाते हैं और यह एकांगिता की बीमारी आज सर्वत्र व्याप्त है । सर्वांगीण दृष्टिकोण यह हो सकता है कि हम समुदाय की चिन्ता करते समय व्यक्ति को विस्मृत न करें और व्यक्ति - चिन्ता के समय समुदाय की स्मृति बनाए रखें। भगवान् महावीर का एक सिद्धान्त है - ' जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वही एक को जानता है ।' हमें समस्याओं का समाधान इसीलिए नहीं मिल रहा है कि हम एक को भी नहीं जानते। एक परमाणु को जानने के लिए अन्य सभी वस्तुओं को जान लेना अनिवार्य हो जाता है । परमाणु से भिन्न सभी वस्तुओं से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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