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धर्म और संस्थागत धर्म ५५
जिस सत्य का हमने अनुभव नहीं किया, साक्षात् नहीं किया, प्रयोग नहीं किया, क्या वह सत्य की सरिता अनुभव की ऊंचाई से प्रवाहित हो सकती है? कवि की कल्पनाओं को काव्य की भाषा में दुहराने से हमारा काम चल सकता है पर अध्यात्म के सत्यों को शास्त्र की भाषा में दुहराने से काम नहीं चल सकता। सोमरस-पान का यशोगान करने वाला शास्त्र की गरिमा नहीं बढ़ा सकता। कलह और लड़ाई की धूनी रमाने वाला अहिंसा के गीत गाकर उससे लाभान्वित नहीं हो सकता। मैं कई बार कुछ लोगों से पूछ लेता हूं- 'अहिंसा अच्छी है, अपरिग्रह अच्छा है, इसका तुम्हें कोई अनुभव है? उत्तर मिलता है, 'अनुभव तो नहीं है।' 'तो फिर तुम कैसे कहते हो कि अहिंसा अच्छी है, अपरिग्रह अच्छा है? तत्काल उत्तर मिल जाता है, 'अमुक शास्त्र में लिखा है इसलिए हम कहते हैं।' तब मैं सोचता हूं इन्हीं धार्मिकों के कारण धर्म निस्तेज बना है, अहिंसा और अपरिग्रह की गरिमा कम हुई है। जब-जब शास्त्रीय वाक्यों की दुहाई बढ़ती है और आत्मानुभूति घटती है तब शास्त्र तेजस्वी
और धर्म निस्तेज हो जाता है। जब आत्मानुभूति बढ़ती है और शास्त्रीय वाक्यों की दुहाई घटती है तब धर्म तेजस्वी और शास्त्र निस्तेज हो जाता है। धर्म की प्रतिष्ठा चाहने वाले क्या आज कुछ नये सत्य का उद्घाटन कर रहे हैं? कोई नया तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं? आज का युग वैज्ञानिक युग है। आज का युग बौद्धिक और तार्किक युग है। इस युग में अतीत के अन्धकार और भविष्य के गह्वर में विश्वास करने वाले लोग कम होंगे। वर्तमान में विश्वास करने वालों की संख्या अधिक होगी। इसलिए धर्म को वर्तमान की कसौटी पर कसकर ही प्रस्तुत करना होगा।
आज का युग व्यक्तिवादी युग नहीं है। यह समाजवाद का युग है। जीवन के सामुदायिक प्रयोग विकसित हो रहे हैं। पहले लोग छोटे-छोटे गांवों में रहते थे। आज कलकत्ता और बम्बई जैसे विशाल नगर बन गए हैं। पहले लोग व्यक्तिगत सवारी-ऊंट, घोड़ों की-करते थे। आज रेल आदि की सामूहिक सवारी होती है। सामूहिक व्यापार, सामूहिक कृषि और सामूहिक भवन इस प्रकार वैयक्तिकता सामूहिकता में बदल रही है। आज के लोग धर्म को भी व्यक्तिवादी देखना नहीं चाहते। मैं आपसे कहना चाहता हूं कि धर्म व्यक्तिनिष्ठ होते हुए भी सामुदायिक है,
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