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५४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
इसीलिए धर्म का द्वार सबके लिए खुला नहीं है। बंद दरवाजे वाला धर्म सीमाबद्ध हो जाता है। जैसे-हिन्दू-धर्म, जैन-धर्म, बौद्ध-धर्म, ईसाई-धर्म, इस्लाम-धर्म आदि-आदि। इन संस्थागत धर्मों के आस-पास अनगिन रेखाएं खिंच जाती हैं और बाड़े बन जाते हैं। मनुष्य बंट जाता है। मेरे धर्म का आदर करे, पालन करे वह आदमी है और जो मेरे धर्म का स्वागत नहीं करता, वह आदमी नहीं है, ऐसी धारणाएं रूढ़ हो जाती हैं। इसीलिए संस्थागत धर्म के द्वारा जनता का बहुत भला नहीं हुआ, और न ही हो पा रहा है। कुछ लोगों ने इस संस्थागत धर्म की निष्पत्तियों के आधार पर धर्म को अनावश्यक ठहराने का प्रयत्न किया है। जीवन की प्राथमिक अपेक्षाओं की पूर्ति में बाधक मान मानसिक मानचित्र से उसे लुप्त करने का प्रयत्न किया है। क्या यह सही चरण है? मैं सही
और गलत की लम्बी चर्चा में नहीं जाऊंगा। मैं संक्षेप का प्रेमी हूं, इसलिए संक्षेप में इतना ही कहूंगा कि रोटी, कपड़ा और मकान-ये जीवन की प्राथमिक आवश्यकताएं हैं। इनकी पूर्ति में मनुष्य के पुरुषार्थ की कृतकृत्यता नहीं है। उसकी कृतकृत्यता सत्य की खोज और सत्य की उपासना में है। मनुष्य साधारणतः श्रद्धालु होता है। यह अच्छा है, किन्तु उसे शल्य-चिकित्सक भी होना चाहिए। शरीर में श्रद्धा होने का यह अर्थ नहीं कि उसमें हुए फोड़े की शल्य-चिकित्सा न की जाए। श्रद्धा और शल्य-चिकित्सा-दोनों समन्वित रहते तो धर्म का शरीर अस्वस्थ नहीं होता।
धर्म की आत्मा विस्मृत क्यों हुई? धर्म का शरीर अस्वस्थ क्यों हुआ? इन प्रश्नों की गहराई में जाने पर मुझे प्रतीत होता है कि शास्त्रावलम्बी श्रद्धा से धर्म की आत्मा विस्मृत हुई है और शल्य-चिकित्सा से वियुक्त श्रद्धा से धर्म का शरीर अस्वस्थ हुआ है।
आज हर धार्मिक शास्त्रों की दुहाई देता है। कोई गीता की, कोई आगमों की, कोई पिटकों की, कोई कुरान की और कोई बाइबिल की। क्या धार्मिक इस चिन्तन में व्याप्त नहीं होते कि हजारों वर्ष पहले निर्मित शास्त्रों में जो लिखा है, वह सब ठीक है? क्या हम उसे ठीक-ठीक समझ रहे हैं? क्या हमने उन सत्यों का अनुभव किया है, साक्षात् किया है?
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