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धर्म और संस्थागत धर्म ५३
अपने आपको धार्मिक मानने वाले व्यक्ति में भी भय, शोक, घृणा और विकार उतना ही है, जितना किसी अधार्मिक में है। “सब जीव समान हैं' के व्याख्याता भेदभाव से भरपूर और 'सब जीव एक ही ब्रह्म की सन्तति हैं' के व्याख्याता क्रूर हों तो सहज ही यह धारणा बन जाती है कि दर्शन का क्षेत्र बुद्धि और व्याख्या ही है। ____ मैं नहीं समझ सका-आत्मा है, वह पुनर्भवी है, वह कर्म का कर्ता
और भोक्ता है, अच्छे कर्म का फल अच्छा और बुरे का बुरा होता है, इस धारणा में विश्वास रखने वाला भी बुरा कर्म करते हुए संकोच नहीं करता, तब आस्तिक नास्तिक की भेद-रेखा क्या है?
२. धर्म और संस्थागत धर्म
कुछ लोगों का मत है कि धर्म मनुष्य के लिए सदा उपयोगी है, क्योंकि वह शाश्वत है। कुछ लोग उसे अनुपयोगी मानते हैं। उनका मानना है कि वह अब पुराना हो गया है, उस पर आवरणं आ गए हैं, अब उससे चिपके रहना उचित नहीं है। क्या हम इस अभिमत को अपना समर्थन दें कि धर्म की उपयोगिता समाप्त हो चुकी है? अथवा इस अभिमत की पुष्टि करें कि वर्तमान परिस्थिति में धर्म हमारे लिए उपयोगी है?
इस प्रश्न पर जब मैं चिन्तन करता हूं तब मेरे सामने धर्म के दो रूप उभर आते हैं-एक संस्थागत धर्म और दूसरा धर्म। धर्म आकाश की तरह अनन्त, असीम और उन्मुक्त है। उसे जब छोटी-छोटी सीमाओं में बांध दिया जाता है, तब वह संस्थागत धर्म (सम्प्रदाय धर्म) हो जाता है। मुक्त आकाश पर किसी का अधिकार नहीं होता और ममत्व भी नहीं होता। परन्तु उसी आकाश को जब हम कमरों में बांध लेते हैं, भवन का आकार दे देते हैं, तब उस पर हमारा अधिकार और ममत्व हो जाता है। मुक्त आकाश की शरण में सब जा सकते हैं किन्तु कमरों में बंधे हुए आकाश में सब नहीं आ-जा सकते। वहां प्रवेश निषिद्ध किया जा सकता है। धर्म की स्थिति भी ठीक यही हुई है। यह असीम सत्य है। सबके लिए ग्राह्य और सबके द्वारा अनुमोदित। परन्तु उसे कमरों में बांधकर, भवन का आकार देकर सीमित कर दिया गया है।
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